गुरुवार, 14 मई 2009

एलीट बने रहने के फंडे


चंदन शर्मा

दिल्ली का प्रतिष्ठित स्टीफेंस कॉलेज फिर से एक बार चर्चा में आ गया है. दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश का सीजन शुरू होते ही दिल्ली की मीडिया इस एलीट कॉलेज के पीछे ही पड़ जाती है. आख़िर क्या दिक्कत है अगर स्टीफेंस ने अंकों को अपने यहाँ दाखिले का एकमात्र मापदंड नही बनाया है और पुराने प्रिंसिपल अनिल विल्सन के ढर्रे पर चलते हुए पर्सनल इंटरव्यू को एक प्रमुख मापदंड के रूप में फिर से स्थापित कर रहा है.

वैसे भी एलिट या भद्र समाज हमेशा से कुछ ऐसा करता आया है जिससे आम लोगों की पहुँच इस भद्र समाज तक आसानी से नही हो पाये. अब देखिये स्टीफेंस ऐसा कॉलेज है जहाँ प्रवेश के लिए इंटरव्यू में पास होना अनिवार्य है भले ही आप ने बारहवीं कक्षा ९९ फीसदी अंक लेकर पास की हो . मतलब साफ़ है की आपने अगर किसी सरकारी स्कूल से इतने ऊँचे अंकों के साथ परीक्षा पास की है तो आप के प्रवेश की संभावना क्षीण ही है. और अगर आपने अपनी पढ़ाई हिन्दी मीडियम से पास की है तो फिर यहाँ प्रवेश का ख्वाब नही देखें तो अच्छा है.

बात सिर्फ़ इतनी ही नही है यह कॉलेज उनसे भी दूर ही रहता है जो आम लोगों के या गैय्या -पट्टी के छात्रों की पसंद है. अब हिन्दी को लीजिये दिल्ली का शायद यह अकेला कॉलेज होगा (गैर-व्यावसायिक श्रेणी में) जिसमें हिन्दी की पढ़ाई नही होती है. आप कितना भी हिन्दी का गुणगान कर लें की यह अब रोजगार देने वाला विषय बन गया है. वैसे इसी कॉलेज में क्षयमान होते विषय दर्शन और संस्कृत की पढ़ाई होती रही है.

वैसे यह अंग्रेजों के जमाने के नुस्खे है जो आज भी अपने आप को एलिट बनाये रखने में कारगर है. कहने को तो संस्कृत भी एक जमाने में एलिट वर्ग की ही भाषा थी पर भला हो तुलसीदास जी का जिन्होंने रामचरितमानस हिन्दी में लिखकर सारे संस्कृत के पुराने एलिट को ठंडा कर दिया. पर भद्रजन तो भद्रजन है चाहे वे वैदिक काल के हों या अंगरेजी युग के या फिर आज के. एलिट बने रहने के लिए कुछ न कुछ तो करना जरूरी है. नही तो उन्हें कौन आम आदमी पूछेगा?

बात सिर्फ़ यहीं तक हो तो ठीक था. यहाँ पूरे देश के नेता युवाओं को पता कर उन्हें वोट करने और उन्हें नेता चुनने के लिए घर से बाहर निकालने केलिए पूरा जोर लगा रखा था पर स्टीफेंस में नेतागिरी को दरवाजा दिखा दिया जाता है. बेचारे यूनिवर्सिटी के छात्र संघ (डूसू) के नेता वहां जिंदाबाद मुर्दाबाद तक नहीं कर सकते है.दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है. पर ब्रिटिश राज के कॉलेज और ब्रिटिश राज के ख़यालात. वैसे भी पुराने जमाने में कॉलेज का काम लीडर नहीं बल्कि नौकर तैयार करना होता था. सो, वह रिवाज बदस्तूर कायम है. आख़िर एलिट बने रहना है, जन सेवक या जन प्रतिनिधि नही!


concept12

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