रविवार, 31 मई 2009

अब सरकारी स्कूलों में प्रवेश के लिए आवेदन की भीड़

चंदन शर्मा

दिल्ली में शायद कई दशकों में पहली बार ऐसा हुआ है. दसवीं और बारहवीं के नतीजों में इन स्कूलों के छात्रों ने पब्लिक और कॉन्वेंट स्कूलों को तो कड़ी टक्कर दी ही है और बेहतर परिणाम दिए हैं. पर इससे भी बड़ी बात यह है की दिल्ली के सरकारी स्कूलों में प्रवेश के चाह रखने वालों की भीड़ एकाएक बढ़ गयी है. दिल्ली के शिक्षा मंत्री अरविंदर सिंह और शिक्षा सचिव रीना रे की मानें तो दिल्ली के सरकारी स्कूलों में प्रवेश के लिए ९२००० आवेदन आ चुके हैं और इस संख्या में ५२००० का और इजाफा होने की आशा है.

यानी की दिल्ली के सरकारी स्कूलों में इस बार करीब १.४० लाख छात्र प्रवेश के इच्छुक है. यह चमक-दमक वाले आदम्बर्पूर्ण और मोटी फीस वसूलने वाले निजी स्कूलों के लिए चिंता का विषय हो सकता है. पर आम अभिवावकों के लिए संतोष का कारण है जो जीवन की जरूरतें मुश्किल से पूरा करते हैं और अपने बच्चों के बेहतर शिक्षा के मुश्किल से फीस जुटा पाते हैं. इस बार के परिणामों से कम से कम वह ये आशा तो रख ही सकते हैं की सरकारी स्कूल में पढाने से उनके बच्चे पिछादेंगें नहीं और इन निजी स्कूल के छात्रों के बराबर या उनसे बेहतर प्रदर्शन कर सकते है. आंकडों की और देखें तो इन स्कूलों के औसत परिणाम दसवीं और बारहवी में ८० से ९० फीसदी तो रहे ही हैं. पर इससे बढ़कर यह की इनके छात्र ९५ फीसदी से भी ज्यादा अंक लाने में सफल रहे हैं जो किसी भी स्कूल और छात्र का सपना होता है. निश्चित रूप से मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, शिक्षा मंत्री अरविंदर सिंह और शिक्षा विभाग की नीतियों के साथ-साथ योग्य शिक्षकों का मार्गदर्शन और सबसे बढ़कर छात्रों की कड़ी मेहनत इस अभूतपूर्व सफलता के कारक रहे हैं. और, इन्ही सब ने इन स्कूलों के प्रति आस्था वापस लौटाई है और निजी स्कूलों का ahankaar भी टूटा है.

पर अभी भी कई कमियां हैं जिनमें व्यापक सुधार की जरूरत है. इनमें बेहतर शिक्षण के साथ सभी स्कूलों में समान और स्तरीय शिक्षण, छात्रों को बेहतर वक्तृत्व कला , कंप्यूटर शिक्षण, खेल-कूद व अन्य पाठ्येतर गतिविधियों का विस्तार इन स्कूलों में जरूरी है. ताकी बेहतर विकास के लिए ये निजी स्कूलों की तरफ़ ना देखें .

कभी मेट्रो, बस में सफर करते हुए, या अपनी गाड़ियों में सफर करते हुए जब स्कूली छात्र की भीड़ देखतें हैं तो अभिभावकों के पसीने छूट जाते हैं. कई बार तो इन्हे अच्छी शिक्षा के लिए १५ से २० किलोमीटर तक दूर जाना पड़ता है. यह स्थिति दिल्ली के छात्रों के लिए आम है और इसे ख़त्म करने की जरूरत है. अमेरिका जैसे ‘विकसित’ देशों में भी बच्चों के लिए स्कूल नजदीक में ही उपलब्ध होते हैं और साथ ही वहां सरकारी और निजी स्कूलों जैसी कोई स्थिति नही है. आख़िर यह स्थिति यहाँ क्यों नही हो सकती है.

बुधवार, 27 मई 2009

'युवा' से बनेंगे सरकारी स्कूल बेहतर व आकर्षक

आखिरकार दिल्ली सरकार और इसके शिक्षा विभाग ने पाठ्येतर गतिविधियों का महत्त्व समझते हुए इसे सरकारी स्कूलों में सुनियोजित ढंग से लागू करने के लिए कदम बढ़ा दिया है. सुविधा वंचित स्कूली छात्रों को ध्यान में रखते हुए जीवन कौशल शिक्षा 'युवा' का आज दूसरा संस्करण दिल्ली के सरकारी स्कूलों के लिए लागू कर दिया. दिल्ली के शिक्षा मंत्री अरविंदर सिंह ने आज इसे लागू करते हुए स्वीकार किया की सरकारी स्कूलों को और बेहतर और आकर्षक बनाने की जरूरत है ताकि सीखने की प्रक्रिया आनंददायक, रुचिकर और सार्थक हो सके.

मालूम हो की इसी मंच पर पाँच दिन पूर्व “शाबाश अनुज गोयल” में सरकारी स्कूलों को बेहतर और आकर्षक बनाने के लिए किताबी शिक्षा के साथ-साथ पाठ्येतर गतिविधियों को भी पूरा महत्त्व देने की वकालत की गयी थी. युवा का यह कार्यक्रम छात्रों के समग्र और स्वस्थ विकास के साथ-साथ उन्हें समाज के साथ सफल ढंग से तालमेल बिठाने के उद्देश्य से बनाया गया है. इसके तहत स्थानीय और बाहरी जगहों पर भ्रमण, एनीमेशन वाला पाठ्यक्रम, एको-क्लब, खेल-कूद, क्विज, वार्तालाप आदि कई चीजें समाहित की गयीं हैं.
शिक्षा मंत्री के अनुसार, यह प्रयास बच्चों को स्कूल की और न सिर्फ़ आकर्षित करेगा बल्कि उन्हें स्कूली शिक्षा से भी जोड़े रखने में भी मदद करेगा. इसके अलावा यह बचपन से किशोरावस्था और किशोरावस्था से वयस्क होने की जटिल प्रक्रिया में भी छात्रों का मददगार साबित होगा.

शनिवार, 16 मई 2009

yuva संदेश: काम बस और कुछ नही







चंदन शर्मा

तो यह एक बार फिर यह स्पष्ट हो गया की राहुल गाँधी फिलहाल प्रधान मंत्री नही बनेंगे. पर राहुल के प्रयास (और उनकी ८७००० kilometer की यात्रा) से जो देश भर के युवा ने इस बार जागकर जो संदेश दिया है वह आइने की तरह साफ़ है की बगैर काम के देश के मतदाताओं को भरमाया नही जा सकता है. इस बार चुनाव परिणाम में जो तस्वीर सामने आयी है उसमें साफ़ है की हर युवा जो काम करने का जज्बा रखता है उसका लोगों ने समर्थन किया है. चाहे वह राहुल हों या उसकी टीम के अशोक तंवर, सचिन पायलट, जीतेन्द्र सिंह या संदीप दीक्षित हों या ६० साल के युवा नीतीश कुमार हों.

नीतिश को युवा कहना थोड़ा अटपटा लग सकता है पर हर वह आदमी जो कुछ नया करने और विपदा को अवसर के रूप में बदलने में सक्षम है वह युवा है. और नीतीश कुमार इस कसौटी पर खरे उतरते है. ऐसे में आर्श्चय नही होना चाहिए की राहुल अभी भी इस बेदाग़ और ‘युवा’ नीतीश के साथ के पक्षधर हैं.

युवा कांग्रेस के अशोक तंवर इस युवा के दूसरे उदाहरण हैं. जिन्होंने लंबे समय तक यूथ कांग्रेस के साथ रहकर कांग्रेस की उपेक्षित इकाई को जीवंत और सार्थक बनाया. कहने की जरूरत नही है की राहुल का मार्गदर्शन इसमें प्रमुख रहा पर इस लोकसभा चुनाव में तंवर ने सिरसा में चौटाला और भजनलाल का जिस तरह से प्रभुत्व तोडा वह अपने आप में नया है.

संदीप दीक्षित न सिर्फ़ दिल्ली की मुख्या मंत्री के सुपुत्र है पर उससे बढ़कर उन्होंने यमुना पार क्षेत्र में काम दिखाया है उसे क्षेत्र की जनता ने भी हाथों हाथ लिया है. यही बात सचिन पायलट और दर्जनों ‘युवा’ उमीदवारों पर भी लागू होती है चाहे वे किसी भी पार्टी से हों. काम के बजाय जनता को फालतू मुद्दों में उलझा कर चुनाव जीतने की चाह रखने वालों के लिए यह सबक है चाहे वे लेफ्ट के हों या बीजेपी के या अन्य किसी पार्टी से. जनता को काम चाहिए और इस बार उन्होंने वोट इसी के लिए दिया है.

गुरुवार, 14 मई 2009

एलीट बने रहने के फंडे


चंदन शर्मा

दिल्ली का प्रतिष्ठित स्टीफेंस कॉलेज फिर से एक बार चर्चा में आ गया है. दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश का सीजन शुरू होते ही दिल्ली की मीडिया इस एलीट कॉलेज के पीछे ही पड़ जाती है. आख़िर क्या दिक्कत है अगर स्टीफेंस ने अंकों को अपने यहाँ दाखिले का एकमात्र मापदंड नही बनाया है और पुराने प्रिंसिपल अनिल विल्सन के ढर्रे पर चलते हुए पर्सनल इंटरव्यू को एक प्रमुख मापदंड के रूप में फिर से स्थापित कर रहा है.

वैसे भी एलिट या भद्र समाज हमेशा से कुछ ऐसा करता आया है जिससे आम लोगों की पहुँच इस भद्र समाज तक आसानी से नही हो पाये. अब देखिये स्टीफेंस ऐसा कॉलेज है जहाँ प्रवेश के लिए इंटरव्यू में पास होना अनिवार्य है भले ही आप ने बारहवीं कक्षा ९९ फीसदी अंक लेकर पास की हो . मतलब साफ़ है की आपने अगर किसी सरकारी स्कूल से इतने ऊँचे अंकों के साथ परीक्षा पास की है तो आप के प्रवेश की संभावना क्षीण ही है. और अगर आपने अपनी पढ़ाई हिन्दी मीडियम से पास की है तो फिर यहाँ प्रवेश का ख्वाब नही देखें तो अच्छा है.

बात सिर्फ़ इतनी ही नही है यह कॉलेज उनसे भी दूर ही रहता है जो आम लोगों के या गैय्या -पट्टी के छात्रों की पसंद है. अब हिन्दी को लीजिये दिल्ली का शायद यह अकेला कॉलेज होगा (गैर-व्यावसायिक श्रेणी में) जिसमें हिन्दी की पढ़ाई नही होती है. आप कितना भी हिन्दी का गुणगान कर लें की यह अब रोजगार देने वाला विषय बन गया है. वैसे इसी कॉलेज में क्षयमान होते विषय दर्शन और संस्कृत की पढ़ाई होती रही है.

वैसे यह अंग्रेजों के जमाने के नुस्खे है जो आज भी अपने आप को एलिट बनाये रखने में कारगर है. कहने को तो संस्कृत भी एक जमाने में एलिट वर्ग की ही भाषा थी पर भला हो तुलसीदास जी का जिन्होंने रामचरितमानस हिन्दी में लिखकर सारे संस्कृत के पुराने एलिट को ठंडा कर दिया. पर भद्रजन तो भद्रजन है चाहे वे वैदिक काल के हों या अंगरेजी युग के या फिर आज के. एलिट बने रहने के लिए कुछ न कुछ तो करना जरूरी है. नही तो उन्हें कौन आम आदमी पूछेगा?

बात सिर्फ़ यहीं तक हो तो ठीक था. यहाँ पूरे देश के नेता युवाओं को पता कर उन्हें वोट करने और उन्हें नेता चुनने के लिए घर से बाहर निकालने केलिए पूरा जोर लगा रखा था पर स्टीफेंस में नेतागिरी को दरवाजा दिखा दिया जाता है. बेचारे यूनिवर्सिटी के छात्र संघ (डूसू) के नेता वहां जिंदाबाद मुर्दाबाद तक नहीं कर सकते है.दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है. पर ब्रिटिश राज के कॉलेज और ब्रिटिश राज के ख़यालात. वैसे भी पुराने जमाने में कॉलेज का काम लीडर नहीं बल्कि नौकर तैयार करना होता था. सो, वह रिवाज बदस्तूर कायम है. आख़िर एलिट बने रहना है, जन सेवक या जन प्रतिनिधि नही!


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बुधवार, 13 मई 2009

काले धन के मामले में ५० को नोटिस

चंदन शर्मा

आखिरकार काले धन के मामले में सरकार ने कार्रवाई शुरू कर दी है. चुनाव के इस मौसम में विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन के बारे में केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड ने ५० भारतीयों को नोटिस जारी किया है. इसमें देश के कई बड़े पूंजीपतियों, उद्योगपतियों और व्यापारिक घरानों के नाम शामिल बताये जा रहें है. हांलाकि सरकार की और से इन लोगों के नाम गुप्त रखे गए है.

माना जा रहा है की इन बैंकों में जमा काला धन बड़ी मात्रा में विदेशी संस्थागत निवेशकों के जरिये शेयर बाज़ार में लगाया जा रहा है. सरकार की संभावित कार्रवाई के मद्देनज़र इन लोगों ने यह काम शुरू किया है. वैसे चुनाव के मौसम में सेंसेक्स के इतनी तेजी से बढ़ने का यह एक बड़ा कारण माना जा रहा है. पहले भी इसी ‘युवा’ में एक रिपोर्ट “काला धन, युवा, मंडी और सेंसेक्स के रिश्ते” में इस बारे में चर्चा की जा चुकी है. दुनिया भर की आर्थिक रिपोर्टों की मानें तो भारतीयों का विदेशी बैंकों में करीब ३००००० करोड़ रुपये जमा है. यह धन कुछेक लोगों ने कर चोरी के लिए विदेशी बैंकों ने छुपा रखा है.

पर देश के आर्थिक विश्लेषकों का मानना है की इस पैसे को शेयर बाज़ार में लगा कर पैसा तो बनाया जा रहा है लेकिन देश के मूलभूत आर्थिक संरचना के विकास में इसका कोई योगदान नही हो रहा है. जबकि इतनी बड़ी राशिः से देश की मंडी और बेरोजगारी का आसानी से सफाया हो सकता है. मालूम हो की पिछले दिनों jee-८ के शिखर सम्मलेन में काले धन का मुद्दा जोर-शोर से उठा था और मंदी की मार झेल रहे ‘विकसित’ देशों ने इस काले धन को छुपाने में सहयोग करने वाले देशों के ख़िलाफ़ शिकंजा कसने की जोरदार वकालत की थी.

गुरुवार, 7 मई 2009

आपबीती: वोट देने के लिए लगानी पड़ी चुनाव आयोग में गुहार

युवा को हमने ए़क ऐसा मंच बनने का सपना देखा था जिसमें सबकी भागीदारी हो सके, खासकर युवा वर्ग के लोगों की। यह आपबीती इसी सपने की ए़क कड़ी है। जिसमें लेखिका ने ए़क आम वोटर के द्वारा भोगी जाने वाली दिक्कतों का खुलासा किया है।

शची

दिल्ली में मताधिकार का प्रयोग मेरे लिए ए़क ऐसा अविस्मरणीय संस्मरण बन गया है जिसे मैं कभी नहीं भूल पाऊँगी। पप्पू नहीं बनने के लिए उप-मुख्य चुनाव अधिकारी तक का दरवाजा खटखटाना पड़ा। वैसे तो 'पप्पू मत बनिए, वोट करिए' की गूँज तो चारों ओर है और लगभग सभी मीडिया चैनलों और घरानों ने बाकायदा इसबारेमें अभियान चला रखा है। पर पप्पू नहीं बनाना इस देश में पप्पू बनने से कहीं ज्यादा मुश्किल है।

वैसे तो वोट करने की मेरी आदत नहीं रही है पर पति के बार-बार के तानों (और अनुरोध ) से तंग आकर मैंने वोट करने का फ़ैसला कर लिया। बगैर यह समझे की भारत में बोगस वोटिंग तो आसान है पर सच्ची वोटिंग नहीं। खैर, अपने पति और बच्चों के साथ मैं करीब १२.३० बजे दिल्ली के द्वारका स्थित बी जी एस स्कूल, सेक्टर-५ पहुँच गयी, जहाँ पोलिंग बूथ बनाया गया था। मटियाला विधान सभा (एसी-३४) का बूथ नंबर-४५। वैसे चुनाव आयोग के अधिकारियों को बधाई देना चाहिए कि उन्होंने ऐसी बढ़िया जगह वोटिंग के लिए चुनी, खासकर गरमी के मौसम में। जो भी हो, पहले हमलोग स्कूल के बाहर के पोलिंग एजेंट के पास गए अपना नाम वोटर लिस्ट में देखने के लिए। वहां वोटर लिस्ट में हम दोनों का फोटो तो था पर नाम किसी और का था। इस पर पोलिंग एजेंट ने हमें अंदर जाकर चुनाव आयोग की आधिकारिक सूची देखने की सलाह दी।

अंदर जाकर सूची देखने पर नाम और फोटो दोनों लिस्ट में थे। हमदोनों ने रहत की साँस ली की चलो मुसीबत छूट गयी। पर मुझे नहीं पता था की अन्दर इससे बड़ा संकट खड़ा है। । अन्दर जाने पर मुझसे आई-कार्ड की मांग की गयी। चूँकि चुनाव आयोग ने वोटर आई कार्ड अब तक बना कर भेजने की जहमत नही उठाई और किसी आई कार्ड की मुझे जरूरत नहीं पडी तो ऐसे में किसी पहचान पत्र के होने का सवाल ही नहीं उठता था। हांलाकि मेरे पतिदेव ने कहा कि यह मेरे साथ है । मेरी पत्नी है और वोटर लिस्ट में इनका नाम है। चूँकि वोटर लिस्ट फोटो वाला है इसलिए इससे मिलान करके इन्हे वोट देने दिया जाय। पर पीठासीन अधिकारी जो कि ए़क बुजुर्ग महिला थी, ने ऐसा करने से साफ़ मना कर दिया यह कहते हुए कि उन्होंने अपने ऊँचे अधिकारियों से बात करने के बाद ऐसा निर्णय लिया है। वैसे हम दोनों ने समझाया की सरकारी नियम बोगस वोटिंग रोकने के लिए हैं न कि सही वोटरों को अपने मताधिकार का प्रयोग रोकने के लिए। हमारे पतिदेव ने मेरे लिए ए़क वचन पत्र भी देने का प्रस्ताव रखा । पर वह अधिकारी तैयार नहीं हुई। हार कर हमने चुनाव कार्यालय में अधिकारियों का दरवाजा खटखटाया। पर हाय रे, भारत के स्टील फ्रेम सरकारी अधिकारी, उन्होंने इन अधिकारियों को भी गोली दे दी। आखिरकार थक कर , इसके लिए उप मुख्य चुनाव अधिकारी के यहाँ गुहार लगाई गयी। पर सरकारी अधिकारियों को जनता के सुविधा केलिए बनाये गए नियमों को जनता के बाधा वाले नियमों में बदलने में महारत हासिल होती है। तो, पीठासीन अधिकारी ने वहां भी गोली दे दी। और हमारे पतिदेव से मांग की कि कोई ऐसा प्रमाणपत्र लाइए जिसमें मेरा और मेंरे पति का नाम हो। वैसे मेरे पति को वोट करने की अनुमति मिल गई थी अपना पहचान पत्र दिखने के बाद। पर इस मांग के बाद हमदोनों ने उस महान पीठासीन अधिकारी को करबद्ध प्रणाम किया और बगैर वोट डाले वापस हो लिए।

पर मेरे पतिदेव इतनी आसानी से हार मानने वालों में से नहीं थे। आख़िर मैं भी उनके तानों को ही सुनकर वोट देने आयी थी। बहरहाल मेरे पति ने सोचा कि उप मुख्य चुनाव अधिकारी से संपर्क करने कीकोशिश की जाय तो शायद कोई हल निकल आए। संयोग से उप-मुख्य चुनाव अधिकारी उदय बक्शी से बात हो गयी । उन्होंने छूटते ही कहा कि आपको तो वोट देने के बारे में कह दिया गया था। बस आपको ए़क वचनपत्र देना पड़ेगा कि मैं उनकी पत्नी हूँ। बाद में पीठासीन अधिकारी को फिर से निर्देश दिएगये तब जाकर मैंने दिल्ली में अपने मताधिकार का प्रयोग किया, काफी देर की मशक्कत के बाद। आख़िर पप्पू नहीं बनना था। तो फिर आप सोचिये कि आप पप्पू रहना चाहेंगे या उसकी श्रेणी से बाहर रहेंगे।


बुधवार, 6 मई 2009

काला धन, युवा, मंदी और सेंसेक्स के रिश्ते

कालाधन, युवा और चुनाव पर लेकर बड़ी चर्चा हो रही है। मेरे एक मित्र ने अपने ब्लॉग 'hindivani' पर इसे राजनीति का मुद्दा ही बना दिया . पर जब हमने कुछ आर्थिक विशेषज्ञों से बात की तो कुछ और ही खेल समझ में आया. जिसका सार संक्षेप यहाँ दे रहा हूँ.
चुनाव में मुद्दे की कमी नहीं होती है और चुनाव जब लोक सभा का हो तो मुद्दा और भी गरम हो जाता है। पर जिस तरह से इन चुनावों में शेयर बाजार ने उछाल मारी है वह बाज़ार के विशेषज्ञों को भी अचंभित कर देने वाला है। आप पूछ सकते हैं की शेयर बाज़ार का इस युवावाणी में क्या काम है? पर चुनाव और शेयर बाज़ार का गहरा नाता है। और, शेयर बाज़ार का नौकरी के अवसरों व विकास डर से बेहद करीबी सम्बन्ध है। इसलिए युवा को इससे अलग कर के नहीं देख सकते हैं। खासकर तब जबकि लोगों की नौकरियां इस तथाकथित मंदी के नाम पर थोक में जा रहीं हों।
ऐतिहासिक रूप में चुनाव के दौरान शायद ही कभी दुनिया में कहीं का शेयर बाज़ार ऊपर गया हो। वैसे अपवाद सब जगह होते हैं. तकनीकी रूप में राजनातिक अस्थिरता के कारण बाज़ार मंदी के दौर में ही होता है. हाल मैं अमेरिकी चुनाव में यही हुआ. पर भारत में इसका उल्टा हुआ. करीब ७००० पॉइंट पर पहुँचा सेंसेक्स सीधे १२००० पॉइंट पर पिछले चार महीने में पहुँच गया है. सारे आर्थिक अखबार, चैनल लोगों को इसके कारण समझा, समझा कर थक चुके हैं पर जो यह नही बता रहे है वह यह की इन चार महीनो में बाज़ार के खिलाड़ियों पर सरकार का नियंत्रण नहीं रहा है.दूसरी जो सबसे अहम् बात यह है की विदेशों में जमा कला धन विदेशी संस्थागत निवेशकों के जरिये एकाएक देश के शेयर बाज़ार में आ गया. यह वही कला धन है जिसकी बात अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा से लेकर अडवाणी और मनमोहन तक करते आए हैं. यह कैसे और क्यों आया इसके पीछे एक लम्बी कहानी है पर यह काला धन कितना हो सकता है इसका अंदाजा आप इस तथ्य से लगा लें की मीडिया रिपोर्ट के अनुसार अकेले भारत में एक परिवार ने ७०००० करोड़ रुपये का धन जर्मनी के एक बैंक में जमा कर रखा था. यह धन किसी एक राज्य के पूरे वर्ष के बज़ट से भी ज्यादा है. यह धन कौन लायेगा, यह कहाँ छुपा है इन सब के कोई मायने नही है. असल तो यह है की इस धन के कारण जो दुनिया भर में मंदी की तबाही मची उसका जिम्मेदार कौन है . लाखों युवाओं की नौकरियां गई उसकी जिम्मेदारी किसके ऊपर आती है .

मंगलवार, 5 मई 2009

सिविल सेवा में हिन्दी, क्षेत्रीय भाषा का बोलबाला

यह उनके लिए एक करारा जबाब है जो क्षेत्रीय भाषाओं को उपेक्षा की नजरों से देखते हैं। आईएस की परीक्षा में इस बार शुभ्रा सक्सेना समेत तीन महिला उम्मीदवारों ने इस प्रतिष्ठित परीक्षा में पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर बाज़ी मार ली है वहीं इससे बड़ी ख़बर यह है कि इस परीक्षा में इस बार हिन्दी समेत क्षेत्रीय भाषाओं का बोलबाला रहा है। हांलांकि अंग्रेजी के सबसे पैरोकार मीडिया हाउस टाईम्स ऑफ़ इंडिया ने हिन्दी के बारे में एक भी शब्द लिखना गवारा नहीं समझा है जबकि इसी अखबार ने पंजाबी से सफल होने वाले वीरेंदर शर्मा कि चर्चा अपने फ्रंट पेज में की है।

मालूम हो कि तीसरे स्थान पर रहने वाली रायपुर कि किरण कौशल ने हिन्दी माध्यम से परीक्षा दी थी। 'अमर उजाला' ने हांलाकि इस बारे में ज्यादा तटस्थ रहते हुए क्षेत्रीय भाषाओं के महत्व को स्थान दिया है। वैसे यह पहली बार नहीं है कि हिन्दी, जिसे बोलने वालों कि संख्या ५० करोड़ से ज्यादा है, को इलीट अंगेरजी मीडिया ने उपेक्षित किया है। ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है। दिलचस्प बात यह है कि इस इलीट क्लास मीडिया का सबसे बड़ा पाठक वर्ग हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा की दुनिया से ही आता है और इसी वर्ग के दम पर यह अंग्रेजी मीडिया विज्ञापनों के खजाने पर कब्जा किए बैठा है।

बिडंवना तो यह है कि जब भी हिन्दी कि बात होती है तो यही इलीट क्लास क्षेत्रीय भाषाओं का मसला लेकर बैठ जाता है और इसके विकास कि हर प्रक्रिया को उलझाने कि कोशिश करता है। यह स्थिति तब है जबकि देश कि ६० फीसदी आबादी हिन्दी में कार्य करती है और करीब ९० फीसदी से ज्यादा हिन्दी को जानती समझती है।

रविवार, 3 मई 2009

मनमोहन व आडवाणी पश्चिमी दिल्ली में आमने-सामने

देश की राजधानी दिल्ली की पश्चिमी दिल्ली लोक सभा सीट पर कांग्रेस और बीजेपी के बीच मुकाबला बेहद दिलचस्प हो चुका है। दोनों पार्टियों ने इस सीट पर पूरी ताकत झोंकने का फैसला कर लिया है। इसी के तहत अब से कुछ ही घंटों बाद पार्टी के वरिष्ठतम नेताओं की सभा इस इलाके में होने वाली है। जहाँ कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यहाँ एक चुनावी सभा को संबोधित करने वाले हैं वहीं दूसरी ओर बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पदके दावेदार लाल कृष्ण आडवाणी इस इलाके में जनसमर्थन मांगेंगे।
यहाँ जहाँ कांग्रेस की ओर से दिल्ली के लालू कहे जाने वाले महाबल मिश्रा चुनाव मैदान में हैं तो बीजेपी की ओर से दिल्ली के पूर्व वित्त मंत्री जगदीश मुखी चुनाव मैदान में हैं। दोनों ही वर्तमान में दिल्ली विधान सभा के विधायक हैं। हांलाकि इस इलाके में पेय जल, बिजली और विकास से जुड़ी कई अन्य समस्याएँ हैं। इसके अलावे इसके कई इलाकों में सिखों का बाहुल्य है।
पर दोनों बड़े नेताओं का एक ही दिन करीब एक ही समय चुनावी सभा करने का मतलब साफ़ है की यहां टक्कर कांटे की है। वैसे जनता को इस बारे में फैसला सात मई को करना है।

शनिवार, 2 मई 2009

युवा नेताओं के समर्थन में निकले राहुल



कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी इन दिनों पार्टी के अन्य युवा नेताओं के लिए जन समर्थन मांग रहे हैं। शुक्रवार को ४४ डिग्री की चिलचिलाती गरमी में राहुल ने युवा कांग्रेस के अध्यक्ष अशोक तंवर के समर्थन में हरियाणा के सिरसा में सभा की और जनता से समर्थन माँगा। राहुल ने कहा की तंवर न सिर्फ़ दलितों काप्रतिनिधित्व करते हैं बल्कि वे जेएनयू जैसे विख्यात संस्थान से पीएचडी भी हैं और तंवर के नेतृत्व में क्षेत्र का बहुमुखी विकास सुनिश्चित है। राहुल के साथ सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा और प्रधान मंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री पृथिवी राज चौहान ने भी जन समर्थन माँगा।

तंवर न सिर्फ़ दलितों का प्रतिनिधित्व करते हैं बल्कि लंबे समय से जेएनयू के छात्र रहे हैं और कांग्रेस के छात्र विंग भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन के अध्यक्ष रहे हैं।