सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

जारी है हिंदी के खिलाफ कुचक्र

पिछले कुछ दिनों में हिंदी के विरूद्ध एक के बाद एक कई घटनाक्रम हुए हैं. कहने को तो इनके बीच शायद कोई तारतम्य नहीं है पर अगर हिन्दीभाषी के खांटी नजरिये से देखा जाय तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि हिंदी के जोरदार ढंग से खड़े होने के खिलाफ एक बार फिर से या तो संगठित रूप से प्रयास किये जा रहे हैं या फिर हिंदी विरोधी कुचक्रों को संगठित करने की कोशिश की जा रही है.

विस्तार में जाने से पहले आइये घटनाक्रम पर नजर डालते हैं. कुछ समय पूर्व देश के बहुत बड़े सर्कुलेशन वाले एक अंगरेजी अखबार में गुजरात हाई कोर्ट के हवाले से एक छोटी सी खबर आयी थी - प्रथम पृष्ठ पर- कि हिंदी राष्ट्र भाषा नहीं है. कोर्ट ने यह फैसला क्यों दिया यह विधिवेत्ता ही बता सकते हैं. साथ ही यह उन्ही कि जिम्मेदारी बनती है कि समाज को यह बताएं कि गुजरात में ही पैदा हुए महात्मा गाँधी और रेलवे या बैंक किस आधार पर लोगों को बताते रहे हैं कि देश की राष्ट्रभाषा हिंदी है और हिंदी में काम करें?

बहरहाल इसके तुरंत बाद महाराष्ट्र में सरकार ने तुरंत यह फरमान लागू किया कि अगर मुंबई में टैक्सी चलानी है तो मराठी सीखनी पड़ेगी. उसके तुरंत बाद उत्तर भारतीयों या कहें हिंदीभाषियों पर राजनीतिक प्रहार होने शुरू होने शुरू हो गए. केंद्र के बीच-बचाव से थोड़ा मामला शांत हुआ कि एकाएक ब्रिटिश सरकार ने यह फरमान जारी कर दिया कि दिल्ली चंडीगढ़ और जालंधर में स्टूडेंट वीजा का काम फिलहाल एक महीने के लिए निलंबित किया जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि यह भी उत्तर भारतीयों का ही इलाका है और इन जगहों से ज्यादातर हिंदीभाषी ही आवेदन करते हैं. अगर इतना ही होता तो गनीमत थी. इससे आगे ब्रिटेन ने 'बोगस स्टूडेंट' को रोकने के नाम पर विदेशी छात्रों के लिए अंगरेजी के टेस्ट को और कठिन कर दिया. यह तो समझ पाना मुश्किल है कि इससे कितने बोगस छात्र को रोका जा सकेगा पर इतना तय है कि इसके आधार पर उत्तर भारतीयों छात्रों के लिए मुश्किल बढ़ेगी जो कि ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर हमले से घबराकर ब्रिटेन या अमेरिका की ओर रुख कर रहे हैं.

पर इन सब घटनाक्रम के गंभीर मायने भी हैं कि किस प्रकार से हिंदी, हिंदीभाषियों के बढ़ते प्रभाव को रोका जा सके. यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि जब भी हिंदी को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने की बात की जाती है तो अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को सामने लाकर खड़ा कर दिया जाता है और उसे भारत में एक क्षेत्रीय भाषा के रूप में रख कर उसकी औकात बताने की कोशिश की जाती है. पर अंगरेजी के मामले में यह विरोध कभी नहीं होता है. बल्कि उसे अंतर्राष्ट्रीय संपर्क भाषा का दर्जा देकर सर आँखों पर बिठाया जाता है.

यही लोग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हिंदी को बढ़ने से रोकते हैं और इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों में भी जरूरत की भाषा होने के बावजूद उसे उसका उचित पद देने में आना कानी करते हैं. पर ऐसा नहीं है कि हिंदी में दम नहीं है और वह बढ़ नहीं रही है. पर हिंदी के खिलाफ हो रहे संगठित कुचक्रों को करारा जबाव देने की जरूरत अवश्य है.