बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

अब मेडिकल शिक्षा में वर्ण भेद

चलिए आजादी के ६२ सालों बाद ही सही भारत में अब प्रोफेशन के नाम पर वर्ण-व्यवस्था बनाने की तैयारी हो गयी है. यानि की उच्च और निम्न का भेद. अब इसके लिए कम से कम देशवासियों को सरकार और उसकी एजेन्सी को बधाई तो दे ही देनी चाहिए जिन्होंने ने इतनी बड़ी अवधारणा को जन्म दिया और अब उसके क्रियान्वयन की तैयारी कर रहे हैं.

दरअसल देश भर में डॉक्टरों की भारी कमी और जनसंख्या में उनकी उपलब्धता के अनुपात को देखते हुए (ख़ास कर गाँवों में) अब देश में मेडिकल शिक्षा की नियामक संस्था 'मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया' या भारतीय चिकित्सा परिषद् ने एक अलग ही गंवई डॉक्टरों की फौज बनाने की तैयारी कर ली है. यानी ये होंगे तो एमबीबीएस डॉक्टर ही पर इनके साथ कुछ (स्पेशल या विलेज) अलग से चस्पां हो सकता है. ठीक उसी तरह से जैसे कि हिंदी प्रदेशों में एस पी (देहात) जैसा कुछ होता है. साथ ही इस स्पेशल एमबीबीएस डॉक्टरों के साथ यह भी अनिवार्यता होगी कि वे शुरू के दस साल तक गाँव को छोड़कर शहरों में अपनी प्रैक्टिस नहीं कर सकेंगे. यानी कि उनका भविष्य भीगाँव में ही सिमट कर रह जाएगा अन्य पद्धतियों के डॉक्टरों की तरह. वैसे तो कहने को हमारे यहाँ बहुत सारी चिकित्सा पद्धतियाँ हैं आयुर्वेदिक, यूनानी, होम्योपथी, नेचरोपैथी आदि पर डॉक्टर हमारे यहाँ एम बी बी एस करने वाले ही होते हैं. कुछ सरकार की कृपा से कुछ मेडिकल काउंसिल के संगठित दबदबे के कारण.

वैसे भी ये सब पद्धतियाँ गरीबों के लिए मानी जाती हैं क्योंकि इसमें कमाई या नौकरी की गुंजाइश कम है. अब एमबीबीएस वाले कभी गाँव में ठहरना चाहते ही नहीं हैं तो सरकार उनके लिए कई हथकंडे अपनाती रही है. मसलन अनिवार्य सेवा, इंटर्नशिप आदि. पर उन्हें गाँवों में रहने के लिए कभी पुरस्कृत या प्रोत्साहित किया गया हो ऐसा शायद ही कभी देखने में आया हो. ऐसे में यह नया कोर्स गाँव का कितना भला कर पायेगा यह तो मेडिकल काउंसिल ही जाने पर कई गरीब मेधावी मेडिकल छात्रों का भविष्य अंधकारमय जरूर बना देगा.

सब जानते हैं कि मेडिकल शिक्षा का विस्तार अभी इतना नहीं हुआ है कि यह आसानी से लोगों को सुलभ हो जाय साथ ही यह काफी मंहगा भी है. ऐसे में उच्च वर्ग तो पैसे के बल पर अपना प्रवेश देश के प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में करा लेता है पर अन्य छात्र प्रवेश परीक्षाओं के भरोसे बैठे रहते हैं. जाहिर है कि इन कोर्सों को पढने के लिए इस वर्ग को ही बाध्य किया जाएगा, जैसी कि परम्परा रही है. ऐसे में मेडिकल में एक ऐसा वर्ण भेद पैदा होगा जिसकी भरपाई शायद ही हो पाए. शायद मेडिकल काउंसिल भी यही चाहता है. आखिर यह एलिट बनाम सामान्य की लड़ाई है.