यह उनके लिए एक करारा जबाब है जो क्षेत्रीय भाषाओं को उपेक्षा की नजरों से देखते हैं। आईएस की परीक्षा में इस बार शुभ्रा सक्सेना समेत तीन महिला उम्मीदवारों ने इस प्रतिष्ठित परीक्षा में पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर बाज़ी मार ली है वहीं इससे बड़ी ख़बर यह है कि इस परीक्षा में इस बार हिन्दी समेत क्षेत्रीय भाषाओं का बोलबाला रहा है। हांलांकि अंग्रेजी के सबसे पैरोकार मीडिया हाउस टाईम्स ऑफ़ इंडिया ने हिन्दी के बारे में एक भी शब्द लिखना गवारा नहीं समझा है जबकि इसी अखबार ने पंजाबी से सफल होने वाले वीरेंदर शर्मा कि चर्चा अपने फ्रंट पेज में की है।
मालूम हो कि तीसरे स्थान पर रहने वाली रायपुर कि किरण कौशल ने हिन्दी माध्यम से परीक्षा दी थी। 'अमर उजाला' ने हांलाकि इस बारे में ज्यादा तटस्थ रहते हुए क्षेत्रीय भाषाओं के महत्व को स्थान दिया है। वैसे यह पहली बार नहीं है कि हिन्दी, जिसे बोलने वालों कि संख्या ५० करोड़ से ज्यादा है, को इलीट अंगेरजी मीडिया ने उपेक्षित किया है। ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है। दिलचस्प बात यह है कि इस इलीट क्लास मीडिया का सबसे बड़ा पाठक वर्ग हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा की दुनिया से ही आता है और इसी वर्ग के दम पर यह अंग्रेजी मीडिया विज्ञापनों के खजाने पर कब्जा किए बैठा है।
बिडंवना तो यह है कि जब भी हिन्दी कि बात होती है तो यही इलीट क्लास क्षेत्रीय भाषाओं का मसला लेकर बैठ जाता है और इसके विकास कि हर प्रक्रिया को उलझाने कि कोशिश करता है। यह स्थिति तब है जबकि देश कि ६० फीसदी आबादी हिन्दी में कार्य करती है और करीब ९० फीसदी से ज्यादा हिन्दी को जानती समझती है।
ऊपर के 25 में दो हिन्दी व एक पंजाबी से हैं.. अच्छी खबर है। किरण बेहद प्रतिबद्ध छात्रा व अफसर रही हैं अब आईएएस में पहुँचकर वे छत्तीगढ प पूरे देश के लिए बेहतरीन काम करेंगीं ऐसउ मुझे विश्वास है
जवाब देंहटाएंसही विश्लेषण। अंग्रेजी अखबारों की इस खुराफात को मैंने भी कई बार नोट किया है। यदि हिंदी भाषी क्षेत्रों में लोग अंग्रेजी अखबार खरीदना छोड़ दें, तो ये अंग्रेजी अखबार आज मुर्झा जाएं। सब हिंदीतर प्रदेशों में वहां-वहां की भाषाओं के अखबार प्रमुख स्थान पर हैं - मलयाल मनोरमा (केरल), दिन तंती (तमिलनाड), आनंद बाजार पत्रिका (बंगाल) इत्यादि। केवल हिंदी प्रदेश अंग्रेजी अखबार इतने पढ़े जाते हैं।
जवाब देंहटाएंवैसे हिंदी प्रदेशों में भी सभी अंग्रेजी अखबार हिंदी अखबारों से पीछे चल रहे हैं, और कुछ ही वर्षों में जब हिंदी प्रदेश में भी साक्षरता की दर देश के अन्य भागों की जितनी हो जाएगी, तो हिंदी अखबार दौड़ में और भी आगे निकल जाएंगे। तब विज्ञापन भी अंग्रेजी अखबारों के बजाए हिंदी अखबारों को मिलने लगेंगे। यह अभी से होने लगा है। दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण जैसे हिंदी अखबार दुनिया के सबसे बड़े अखबारों में गिने जाते हैं।
हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है। केवल अंग्रेजी अखबार पढ़नेवालों को लगता है कि हिंदी अब मरी अब मरी। आपके इस लेख से जाहिर हो गया है कि यह खबर कितनी झूठी है।
हिंदी के मामले में अंग्रेजी अखबारों के झूठ-फरेब का पर्दाफाश करने के लिए आपको आभार।
Baala ji, der se sahee par is lekh ke liye aapkee prtikriya ka shukriyaa aur abhaar. Hamara manobal badhaane ke liye
जवाब देंहटाएंएक समय था जब सिविल सेवा के लिए किताबें केवल अंग्रेज़ी में उपलब्ध थीं. हिन्दी में परीक्षा के विकल्प के रहते हुए भी अंग्रेज़ी की मजबूरी रहती थी. अच्छी बात है कि आज स्थिति कहीं बेहतर है.
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