बुधवार, 6 मई 2009

काला धन, युवा, मंदी और सेंसेक्स के रिश्ते

कालाधन, युवा और चुनाव पर लेकर बड़ी चर्चा हो रही है। मेरे एक मित्र ने अपने ब्लॉग 'hindivani' पर इसे राजनीति का मुद्दा ही बना दिया . पर जब हमने कुछ आर्थिक विशेषज्ञों से बात की तो कुछ और ही खेल समझ में आया. जिसका सार संक्षेप यहाँ दे रहा हूँ.
चुनाव में मुद्दे की कमी नहीं होती है और चुनाव जब लोक सभा का हो तो मुद्दा और भी गरम हो जाता है। पर जिस तरह से इन चुनावों में शेयर बाजार ने उछाल मारी है वह बाज़ार के विशेषज्ञों को भी अचंभित कर देने वाला है। आप पूछ सकते हैं की शेयर बाज़ार का इस युवावाणी में क्या काम है? पर चुनाव और शेयर बाज़ार का गहरा नाता है। और, शेयर बाज़ार का नौकरी के अवसरों व विकास डर से बेहद करीबी सम्बन्ध है। इसलिए युवा को इससे अलग कर के नहीं देख सकते हैं। खासकर तब जबकि लोगों की नौकरियां इस तथाकथित मंदी के नाम पर थोक में जा रहीं हों।
ऐतिहासिक रूप में चुनाव के दौरान शायद ही कभी दुनिया में कहीं का शेयर बाज़ार ऊपर गया हो। वैसे अपवाद सब जगह होते हैं. तकनीकी रूप में राजनातिक अस्थिरता के कारण बाज़ार मंदी के दौर में ही होता है. हाल मैं अमेरिकी चुनाव में यही हुआ. पर भारत में इसका उल्टा हुआ. करीब ७००० पॉइंट पर पहुँचा सेंसेक्स सीधे १२००० पॉइंट पर पिछले चार महीने में पहुँच गया है. सारे आर्थिक अखबार, चैनल लोगों को इसके कारण समझा, समझा कर थक चुके हैं पर जो यह नही बता रहे है वह यह की इन चार महीनो में बाज़ार के खिलाड़ियों पर सरकार का नियंत्रण नहीं रहा है.दूसरी जो सबसे अहम् बात यह है की विदेशों में जमा कला धन विदेशी संस्थागत निवेशकों के जरिये एकाएक देश के शेयर बाज़ार में आ गया. यह वही कला धन है जिसकी बात अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा से लेकर अडवाणी और मनमोहन तक करते आए हैं. यह कैसे और क्यों आया इसके पीछे एक लम्बी कहानी है पर यह काला धन कितना हो सकता है इसका अंदाजा आप इस तथ्य से लगा लें की मीडिया रिपोर्ट के अनुसार अकेले भारत में एक परिवार ने ७०००० करोड़ रुपये का धन जर्मनी के एक बैंक में जमा कर रखा था. यह धन किसी एक राज्य के पूरे वर्ष के बज़ट से भी ज्यादा है. यह धन कौन लायेगा, यह कहाँ छुपा है इन सब के कोई मायने नही है. असल तो यह है की इस धन के कारण जो दुनिया भर में मंदी की तबाही मची उसका जिम्मेदार कौन है . लाखों युवाओं की नौकरियां गई उसकी जिम्मेदारी किसके ऊपर आती है .

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