रविवार, 14 जून 2009

हिन्दी पर खतरे और लुप्त होती देवनागरी

चंदन शर्मा

जय हो! हिन्दी का काफी विकास हुआ है. इतना कि ‘जय हो’ ऑक्सफोर्ड का दस लाखवां शब्द बनते-बनते रह गया. इतना कि आज हिन्दी में स्नातक और परा स्नातक करने वालों के लिए शिक्षण के अलावा रोजगार पाने के कई विकल्प हैं. इतना कि अब भारत में कहीं भी आप हिन्दी में काम चला सकते हैं. यहाँ तक कि बड़े-बड़े कारपोरेट कंपनियों की बोर्ड मीटिंगों में भी अंगरेजी के साथ-साथ हिन्दी में भी विचार-विमर्श होने लगा है, भले ही घुसपैठिये के रूप में. चलिए हम भी इस पर थोडी देर के लिए खुश हो लेते हैं.

पर यह खुशी काफूर हो जाती है जब हम हिन्दी में कंप्यूटर पर काम करना चाहते हैं. सबसे पहली समस्या का सामना तो की-बोर्ड के साथ ही हो जाता है कि हर फॉण्ट के साथ लोगों को की-बोर्ड भी सीखना पड़ता है. हिन्दी भाषी या हिन्दी प्रेमी के लिए इससे तकलीफदेह बात और कुछ नही हो सकती है कि कंप्यूटर के इस युग में भी हिन्दी के लिए फॉण्ट और की-बोर्ड की लड़ाई अभी तक चल रही है. अभी तक कोई सार्वभौमिक और सर्वमान्य की-बोर्ड नही विकसित हो पाया है जिसे करने पर किसी भी हिन्दी फॉण्ट में टाइप किया जा सके. अंगरेजी के साथ ऐसा नही है. अंगरेजी में फॉण्ट और की-बोर्ड का कोई झगडा नही है. आप चाहे दुनिया के किसी कोने में जाएँ आपको एक समान की-बोर्ड मिलेगा साथ ही उनपर टाइप करने के लिए चुने जा सकने वाले दर्जनों फोंट्स और उनकी विभिन्न रूप. पर हिन्दी में यह सुविधा आज तक उपलब्ध नही हो पाई है भले ही कंप्यूटर के आए पचास वर्ष से ज्यादा हो चुका है. हांलाकि कई कोशिशें हुई पर सभी अधूरे मन से. सरकार के तरफ़ से भी और निजी प्रयास भी हुए पर अंगरेजी वाली स्थिति हिन्दी में अभी दूर की कौडी है. कहने को तो आप हिन्दी के फॉण्ट को अपने लिए अनुकूल फॉण्ट में परिवर्तित कर सकते हैं. पर इसके लिए समय लगाने के अलावा प्रयास भी करना पड़ता है.

दूसरी समस्या हिन्दी के साथ है कि किसी दूसरे के कंप्यूटर पर यह दिखता नही है अगर उसने ख़ास सॉफ्टवेर डाउनलोड नही किया हो. फॉण्ट की तरह ही यह एक ऐसी समस्या है जो हिन्दी को कंप्यूटर पर विकसित उस गति से नही होने दे रही है जो गति अंगरेजी की है. कहने को तो गूगल की कृपा से लोगों को रोमन में हिन्दी टाइप करने की सुविधा मिल गयी है पर यह निश्चित मानिए की यह सुविधा देवनागरी जानने वाले हिन्दीप्रेमियों के लिए नही है. उससे ज्यादा यह उन अंगरेजी प्रेमियों की समस्या हल करता है जिन्हें देवनागरी में काम करने में कठिनाई होती है. वैसे भी रोमन लिपि से लिप्यांतर कर के आप त्रुटिरहित हिन्दी नही लिख सकते हैं.

कहने को तो यह भी हिन्दी का विकास है. पर इस बहाने हिन्दी का लोप भी हो रहा है. कम से कम कंप्यूटर की दुनिया से. अभी नही तो दो-तीन दशकों में. ठीक संस्कृत की तरह. आप पूछ सकते हैं की मेरी इस शंका का कारण क्या है? दरअसल नए जमाने में किसी भी भाषा के कम से कम चार मजबूत स्तंभ होते है – १. लोक संपर्क का मध्यम होना, २.भाषा का सुदृढ़ और व्यापक आधार वाला व्याकरण, ३. रोजी-रोटी कमाने के सन्दर्भ में इसकी स्वीकार्यता और ४. इन सबसे बढ़कर कंप्यूटर के इस युग में भाषा का सूचना तकनीक से बेहतर तालमेल. हिन्दी में ऊपर के तीन तत्व तो हैं पर चौथा नया तत्व अभी भी आधे- अधूरे रूप में है. व्याकरण वाला आधार भी थोड़ा दरकने लगा है. हिन्दी में हिज्जे की त्रुटियाँ अब जितने व्यापक रूप में दीखतीं हैं वह अपने-आप में खतरे की घंटी है. कहने को भाषा का निर्माण लोगो से होता है और व्याकरण बाद में आता है. पर इतने व्यापक लेवल पर अशुद्धियों की अनुमति कहीं नही है. जहाँ तक रोजी-रोटी का सवाल है अंगरेजी और हिन्दी का भेद कायम है. कुछ अपवाद हो सकते हैं.

इस भेद का लेवल क्या है इसे दिल्ली विश्वविद्यालय में इन दिनों चल रही प्रवेश प्रक्रिया से समझें की जहाँ हिन्दी और अन्य विषयों में प्रवेश अंकों के आधार पर होता है वहीं अंगरेजी में प्रवेश के लिए अधिकाँश कालेजों में प्रवेश परीक्षा होती है. हांलांकि इसका मतलब यह भी लगाया जा सकता है की केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का पाठ्यक्रम दिल्ली विश्वविद्यालय को भाता नही है या उसमें कोई खामी है. या फिर, अंग्रेजी की शिक्षा देने वाले अभी भी अपने-आप को नस्लवाद या अभिजात्यवाद के दायरे से मुक्त नही कर पाये हैं. खैर यह विषयांतर है और इस पर कभी और चर्चा करेंगे.

फिलहाल हम देवनागरी के लोप होने और हिन्दी पर मंडराते खतरे की बात कर रहे थे. अगर कंप्यूटर पर देवनागरी का यही हाल रहा तो हिन्दी बोली और पढ़ी जाने वाली भाषा तो होगी पर लिखी जाने वाली नही. ठीक फ्रेंच की तरह. पर यहाँ याद रखिये की भाषा के रूप में फ्रेंच को ऐसी कई सुविधाएं मिली हुई हैं जो हिन्दी के पास नही है. ऐसे में हिन्दी सबसे पहले आने वाली पीढी से गायब होगी, जो कि कंप्यूटर से पूरी तरह से जुरा हुआ है. याद रखें की आज जो भाषा कंप्यूटर से जुडी हुई नही है, वह धीरे-धीरे नष्ट हो रही है भले ही उसका एक व्याकरण हो और वह लोक संपर्क में हो. कंप्यूटर पर अंगरेजी का दबाव झेलना किसी भी भाषा के लिए आसान नही है भले ही वह करोडो में बोली जाती हो. हिन्दी के लिए तो और भी मुश्किल क्योंकि इस देश में हिन्दी के साथ सौतेला व्यवहार का इतिहास पुराना है और हिन्दी को श्रेष्ठ बनाने की बजाय इसे गिराने वालों की संख्या ज्यादा है कम से कम ऊँची कुर्सियों पर बैठे लोगों के बीच. ऐसे में इस ‘जय हो’ का मतलब क्या है?

11 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा लेख. 'हिन्दी के खतरे' की जगह 'हिन्दी पर खतरे' कर दें.
    अर्थ भ्रम हो रहा है।

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  2. भाई यकीन मानिये कि इस भयंकर स्थिति से हमे ही निपटना होगा कोई दूसरा न आएगा हमारी मदद के लिये। अमरीका भाषा के द्वारा अपना प्रभुत्त्व बनाए हुए है सायबर संसार पर। देवनागरी के लिये काम करने वाले हमारे अभियंता क्या घास उखाड़ते हैं क्यो नहीं विंडोज़,लाइनक्स और मशीनटोश की तरह देवनागरी का आपरेटिंग साफ़्टवेयर बना पाते दर असल ये राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी का दुष्परिणाम है। हम लगे रहेंगे।

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  3. आपकी बात कुछ ही सीमा तक सही है। कुछ हद तक इसमें बासीपन है।

    पहली बात तो यह कि यूनिकोड के पदार्पण ने हिन्दी एवं विश्व की तमाम भाषाओं को अंग्रेजी के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया है। आज हिन्दी में कम्प्यूटर पर लिखना उतना ही सरल है जितना अंग्रेजी में।

    फाण्ट आदि का चक्कर धीरे-धीरे समाप्त हो जायेगा (एक-दो वर्ष में)।

    इन्टरनेट पर अंग्रेजी का विस्तार हुआ है किन्तु यह जानना और याद रखना जरूरी है कि अंग्रेजी का इन्टरनेट पर हिस्सा निरन्तर कम हुआ है जो गिरकर आज ३५% रह गया है। स्थिति यह है कि चीनी आदि भाषाओं से नेट पर पिछड़ने का डर अंग्रेजी को सताने लगा है। शायद आपको पता होगा कि चीनी, जापानी आदि को कम्प्यूटर पर लिखना देवनागरी की तुलना में बहुत कठिन है।

    मेरा खयाल यह है कि हिन्दी या देवनागरी इस कारण बिलकुल नहीं पिछड़ेंगी कि इनका कम्प्यूटर पर लिखना कठिन है बल्कि इस कारण पिछड़ने का डर है कि हिन्दीभाषियों में अपनी भाषा और लिपि में काम करने का वह आग्रह नहीं है जो दूसरे भाषा-भाषियों में सहजता से पाया जाता है। हमारे यहाँ पाँचवीं-पास आदमी भी अपना आरक्षण का पर्चा हिन्दी के बजाय अंग्रेजी में भरना पसन्द करता है क्योंकि उसे विश्वास नहीं है कि इस काम के लिये हिन्दी भी उतनी ही कारगर होगी जितनी अंग्रेजी। कभी-कभी वह यह सोचता है कि कोई मुझे कम पढ़ा-लिखा न समझ ले।

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  4. Anunaad ji, Hindi ki saaree samsya aane wale peedhi ko lekar hi hai. Phir bhee is aashavaad ke liye badhaai.

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  5. जैसा कि अनुनाद जी ने स्पष्ट कर दिया है, आपका सारा विश्लेषण पुराने तथ्यों पर आधारित है, और आपके निष्कर्ष एक दशक पहले की स्थिति के लिए सच है। यूनीकोड के आ जाने से फोंट आदि के लफड़े निन्यानवे फीसदी कम हो गए हैं।

    इंटरनेट से हिंदी का लोप होना तो दूर, हो यह रहा है कि इंटरनेट से अंग्रेजी धीरे-धीरे लोप होती जा रही है। चीन, भारत, कोरिया, जापान, अरब देश आदि में इंटरनेट का उपयोग बढ़ने से इंटरनेट अधिकाधिक बहुभाषी होता जा रहा है, और अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त होता जा रहा है। कुछ और वर्षों में चीनी इंटरनेट की प्रमुख भाषा बन जाएगी, हिंदी, अरबी, स्पेनी, जापानी, जर्मन आदि भाषाएं भी पीछे नहीं रहेंगी।

    इसलिए हिंदी या देवनागरी के भविष्य के बारे में चिंतित होकर दुबले होने की जरूरत नहीं है, हिंदी और देवनागरी लिपि का भविष्य अभी उज्ज्वल है। चिंता करनी है तो रोमन लिपि और अंग्रेजी भाषा के भविष्य को लेकर करें, जिनका प्रभुत्व तेजी समाप्त होता जा रहा है।

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  6. बात आने वाली पीढ़ी की हो रही है न कि सीख चुकी अपेक्षाकृत पुरानी पीढ़ी की । क्या नई पीढ़ी में हिन्दी और देवनागरी के प्रति उत्साह है?

    यदि है तो टेक्नॉलोजी कोई बन्धन नहीं है। अभी उपलब्ध तकनीक ही पर्याप्त है, सामान्य कामों के लिए। यदि नहीं है तो टेक्नॉलोजी विकसित ही नहीं होगी, यदि हो भी गई तो प्रयोग के अभाव में फ्लॉप हो जाएगी।

    राह यही है कि हिन्दी/देवनागरी को रोजगारपरक बनाया जाय।

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  7. अनुनाद जी और बल्सुब्रमानियम जी ने काफी कुछ कह ही दिया है .

    ये खतरे नहीं समस्याएं हैं .कम्प्युटर पर नहीं समाज की सोच पर , या मजबूरी पर .जब हम बच्चों को अंगरेजी माध्यम में भेज कर रोमन लिपि से शुरुवात कराएँगे , और स्वप्रयासों से भी नागरी नहीं सिखायेंगे तो लिपि पर खतरे हैं .असली खतरा यही है .

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  8. आज वर्तमान स्थिति ये है कि हिंदी को काफी बड़े स्तर पर प्रयोग में लाया जा रहा है

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  9. आज वर्तमान स्थिति ये है कि हिंदी को काफी बड़े स्तर पर प्रयोग में लाया जा रहा है

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