शनिवार, 27 जून 2009

अनिल विल्सन, सेंट स्टीफेंस और हिन्दी


चंदन शर्मा
अनिल विल्सन और हिन्दी! कुछ अजीब सा लगता है.पर सेंट स्टीफेंस के पूर्व प्रिंसिपल का नाम इस कॉलेज के साथ यूँ चस्पा हो चुका है कि कोई उन्हें इससे अलग कर देखने की सोच भी नहीं सकता है. यह भी नही कि इतनी जल्दी उन्हें श्रधांजलि देने का वक्त आ जाएगा?

मेरा अनिल विल्सन से मिलना ज्यादा नही रहा, सिवाय एक बार उनके साथ बैठकर चाय पीने और कुछ छिटपुट मुलाकातों को छोड़ कर. करीब आठ या नौ साल पहले. उनदिनों मैं हिन्दी अखबार अमर उजाला के लिए काम करता था और मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय की रिपोर्टिंग का काम सौंपा गया था.

चूँकि, दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले का मौसम था इसलिए करीब हर दिन दो-तीन कॉलेज का चक्कर लगाना होता था, खबरों के लिए. सेंट स्टीफेंस में भी इसी सिलसिले में जाना हुआ था. वैसे अंगरेजी के रिपोर्टरों को भी सेंट स्टीफेंस से ख़बर निकालने में नानी याद आती थी तो हिन्दी वाले का क्या कहना. पर हिम्मत कर के कॉलेज चला ही गया. जब प्रिंसिपल (अनिल विल्सन) के कार्यालय में पहुंचा तो मुझे बताया गया कि कुछ अंगरेजी के रिपोर्टर अभी-अभी आकर गए हैं पर ‘सर’ ने मिलने से मना कर दिया है. फ़िर भी रिपोर्टर की आदत से मजबूर, मैंने अपना विजिटिंग कार्ड देकर कहा कि इसे दीजिये मन कर देंगे तो वापस चला जाउंगा. आर्श्चय तो तब हुआ की अन्दर से दो मिनट में ही बुलावा आ गया.

“तो आप ही चंदन हैं”, यह उनका पहला वाक्य था. मैं चौंका की एक खांटी अंग्रेजीपरस्त कॉलेज में ये एक हिंदीवाले को कैसे जानते हैं? पर अभी कुछ और झटके लगने बाकी थे. यूनिवर्सिटी के बारे में आपकी रिपोर्ट मैं देखता हूँ, लगभग हर दिन! उनका दूसरा वाक्य था. पर उस दिन उन्होंने दाखिले पर बात करने से साफ़ मना कर दिया यह कहते हुए की अखबार में छपने वाली कोई बात मैं नहीं करूंगा. पर उसके बाद करीब आधे घंटे तक यह मुलाक़ात चली और उन्होंने चाय भी पिलाई. उन्होंने मॉस-मीडिया के बारे में एक नया कोर्स शुरू करने की योजना के बारे में भी बताया.

बातों ही बातों में मैंने उनसे हिन्दी का पाठ्यक्रम कॉलेज में नही होने की बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि अगर नही लिखने का वादा करो तभी इस पर बात करूंगा. मेरे हामी भरने पर उन्होंने बताया कि हिन्दी का पाठ्यक्रम वे यहाँ लाना चाहते हैं पर कई दिक्कतें और दबाव हैं. कॉलेज की भलाई के लिए वे इसका खुलासा नहीं कर सकते हैं पर उनकी इच्छा है की हिन्दी यहाँ भी शुरू हो.

खैर, इस आधे घंटे की मुलाक़ात के बाद उनसे एक-दो बार यूनिवर्सिटी के कार्यक्रमों में उनसे मुलाक़ात हुई पर बेहद संक्षिप्त. वैसे भी कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति दुर्लभ होती थी दूसरे अधिकारियों या प्रिंसिपल के मुकाबले. उसके कुछ समय के बाद विवादों के बीच कॉलेज से विदाई की ख़बर आयी और हिमाचल विश्वविद्यालय के कुलपति बनने की भी. अपनी अखबारी व्यस्तता और शिक्षा की बजाय राजनीति का खबरी बनने के कारण और कुछ अपने आलस्य के कारण भी उनसे बात नही हो पाई. पर उनका हिन्दी के लिए दर्द… क्या स्टीफेंस सुनेगा?

5 टिप्‍पणियां:

  1. इसे कहते हैं 'चीराग तले अँधेरा', हमलोग यहाँ विदेशों में सरकारी तंत्रों से उलझ-उलझ कर हिंदी स्कूल खुलवा रहें हैं, और तारीफ की बात है कि हिंदी स्कूल खुल रहे हैं, हमारे बच्चे ही नहीं, यहाँ के बच्चे पढ़ रहे हैं और course के credit ले रहे हैं जिनको पूर्ण मान्यता मिल रही है, और यह स्टीफेंस अभी तक सोच ही रहा है ? कमाल है
    आपका लेख बहुत ही सार्थक लगा, बधाई

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  2. St. Stephen's main Hindi nahi hai!! kammal hai! Abhee bhee yah college british raaj men jee raha hai.

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  3. Are bhaai, desh men elite bane rahne english jarooree hai na ki hindi. Stephen's yah jaanta hai?

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  4. एक उम्दा और शानदार लेख के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!

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