चंदन शर्मा
ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हो रहे हमलों को लेकर मीडिया में काफी कुछ कहा और लिखा गया है. और, इसके कारण रंगभेद और नस्लवादी राजनीति और न जाने क्या-क्या कारण बताये गए. वैसे भी मीडिया की स्थिति भेडचाल वाली है. एक रिपोर्ट और बाकी बयानबाजी… सत्य क्या है न तो इस बारे में जानने की जैसे इच्छा है हमारे मीडिया में और न ही शायद इसकी फुर्सत, क्योंकि TRP, सर्कुलेशन के चक्कर में यह सब गौण हो जाते हैं. शायद यह भी भुला दिया जाता है की मीडिया ही देश में जनमत का निर्माण भी करता है.
संभवतया यही कारण था की जब ‘युवा’ ने ऑस्ट्रेलिया से उर्मी चक्रबर्ती का लेख ‘ऑस्ट्रेलिया में नहीं है रंगभेद’ प्रकाशित किया तो ब्लोग्गेर्र्स ही नही बल्कि मेरे कई दोस्त और जानने वाले भी मुझसे खफा हो गए की इतनी सारी मीडिया ग़लत नही हो सकती है. एक ने तो यहाँ तक सलाह दे डाली की इस लेख के काट में मुझे कुछ लिखना चाहिए. मेरे एक मीडिया के मित्र ने तो सीधे ओवेर्सीज मामलों के मंत्री व्यालार रवि से ही इस बारे में पूछ डाला की भारतीयों पर हमले के क्या कारण हो सकते हैं. धन्यवाद मंत्री जी का जिन्होंने स्वीकार किया की इन हमलों के पीछे रंगभेद से इतर भी कई कारण हो सकते हैं.
बाद में कई मीडिया घरानों ने अपने पत्रों में (जिनमें टाईम्स ऑफ़ इंडिया भी शामिल है) ने माना की इन हमलों के पीछे नस्लवाद से बढ़कर कई सामाजिक आर्थिक कारण शामिल हैं. (देखें टाईम्स ऑफ़ इंडिया की ०७ जून को प्रकाशित स्पेशल रिपोर्ट “It is hate, mate of just economics – अविजित घोष और If the world is shrinking, our horizons must broaden-वलीद अली). यह उल्लेख कर कोई शाबाशी लेने का प्रयास नही है बल्कि वास्तविकता को जानने और समझने की ईमानदार कोशिश भर है.
हमले के बारे में ऑस्ट्रेलिया की इतनी चर्चा है. हम क्यों नही अमेरिका, जर्मनी और ब्रिटेन में भारतीयों पर हुए हमलों के बारे में सोचते हैं. दरअसल यह हमले भारत की दुनिया में निरंतर मजबूत होती जा रही स्थिति का भी परिचायक है. गांवों में एक कहावत है की अगर लोग आपको गली देने लगें या वैर भाव रखने लगें तो समझिये की आपकी स्थिति मजबूत हो रही है या आप सही में प्रगति कर रहे हैं. अगर इस कहावत पर विशवास किया जाए तो भारतीयों को न सिर्फ़ ऑस्ट्रेलिया बल्कि अन्य जगहों पर भी इसके लिए तैयार रहना होगा. नस्लवाद तो बहाना भर है. दिनेश द्विवेदी की टिप्पणी एकदम सटीक है की आर्थिक मंडी और बेरोजगारी के नाम पर नस्लवाद के समर्थक इस तरह के हमलों से अपने आप को जीवित रखे हुए हैं.
इन हमलों के पीछे काम कर रहा मूल प्रेरणा नस्लवाद ही है, भले उसे इस समय उकेरा हो आर्थिक तंगी या अन्य किसी कारण ने।
जवाब देंहटाएंटाइम्स ओफ इंडिया के जिस अंक का आपने हवाला दिया है, उसी में स्वप्न दासगुप्ता का लेख भी छपा है, जिसमें उन्होंने आस्ट्रेलिया के नस्लवादी इतिहास का पूरा खाका, 1901 के श्वेत कानून से लकर अब तक का, खींचा है। उन्होंने पोलीन हैन्सन नामक नस्लवादी आस्ट्रेलियाई नेता का भी जिक्र किया है जिन्होंने नस्लवाद के आधार पर 2007 का चुनाव लड़ा था।
इस संबंध में जयहिंदी में मेरा लेख भी देखें -
आस्ट्रेलिया में नस्लवाद की लंबी परंपरा है
Bala ji, jis lekh ki aapne charcha ki hai vah bhee naslvaad ko nakartaa hee hai. vaise bhee desh men hee bhed-bhaav vaale udaaharnon aur uska faayda utha kar neta banane vaalon ki kami nahi hai.
जवाब देंहटाएंkisi ka daaman saaf nahin hai bhed chahe nasl,jaati,dharm,rang ke nam par ho ya kshetr aur haisiyat ke,hota sab jagah hai...Bharatwasi ham khud aaknth isi gutter men hain
जवाब देंहटाएंChandan what you want to say in this post? I am cluless.
जवाब देंहटाएंKi yeh hamle ranbhed se jyada saamaajik aur aarthik aur kaanoon vyvstha se jude hue hain. Saath hee hame bhee aarop lagane se purv apnegibaan men jhaak lena chaahiye.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया और बिल्कुल सठिक लिखा है आपने! लिखते रहिये! आपके नए पोस्ट का इंतज़ार है!
जवाब देंहटाएंयुवा,
जवाब देंहटाएंआपने लिखा है की आस्ट्रेलिया में हुए हमले रंगभेद नहीं होकर आर्थिक या सामाजिक मतभेद है, अगर ऐसा है तो सिर्फ भारतीय ही क्यों, वहाँ बाहर से क्या सिर्फ भारतीय छात्र ही पढ़ने गए हैं, दूसरे देशों के छात्र नहीं हैं वहाँ ? वो क्यों नहीं हो रहे हैं इसका शिकार, अगर यह मतभेद आर्थिक है तो मैं आपको बता दूँ कि इन छात्रो से आस्ट्रेलिया पैसा कमा रहा है गवाँ नहीं रहा है, दूसरी बात जो छात्र बाहर से आते हैं पढ़ने उनकी फीस ४ गुनी ज्यादा होती है, तो इनसे आस्ट्रेलियन पैसा कमा रहे हैं, अब जो पैसे लाकर दे रहें हैं तो उन्हें क्यों पीट रहें हैं ये, आपने यह भी कहा है कि छात्र 'लैपटॉप, फ़ोन वगैरह ना दीखएं' अगर येही लैपटॉप कोई गोरा अँगरेज़ दिखाये तो कोई बात नहीं होगी लेकिन अगर किसी भारतीय छात्र ने दीखाया तो वो बात नहीं पचती, आज भी हमें ये गोरे गुलाम ही देखना पसंद करते हैं फिर चाहे वो गोरा आस्ट्रेलिया का तो या ब्रिटेन का, इसलिए आपकी यह दलील बिलकुल खोखली है,
आस्ट्रेलिया हमेशा से ही दूसरे देशों की अपेक्षा 'रंगभेद' कों ज्यादा मानता है, यह एक बहुत बड़ा कारण है कि आस्ट्रेलिया ने immigration के लिए अपने देश का द्वार बहुत बाद में खोला है, वह भी तब, जब वहाँ की जनसँख्या में वृद्धि बहुत कम हो गयी, और टुच्चे कामों के लिए लोगों की आवश्यकता हुई, आस्ट्रेलिया की आबादी बढ़ाना वहाँ की सरकार की लिए एक पॉलिटिकल एजेंडा है, लेकिन वहाँ के बाशिंदों के लिए बहुत मुश्किल है बाहरी लोगों कों अपनाना, एक बात और हम लोग दिखने में चाहे जैसे भी हों, इन गोरों से बहुत काबिल होते हैं और यह बात इनके लिए झेल पाना मुश्किल होता है , हमें ये 'inferior रेस' मानते हैं, इनकी गोरी चमड़ी पचा नहीं पाती है कि हम रंग के अलावा हर मामले में बेहतर कैसे हैं, यह एक बहुत बड़ा कारण होता है इनकी इर्ष्या का, यह भावना सिर्फ आस्ट्रेलिया में ही नहीं दुनिया में बहुत जगहों पर है लेकिन आस्ट्रेलिया अपनी 'island' मानसिकता से भी ग्रस्त है,
इसलिए ये हमले कदापि आर्थिक या सामाजिक नहीं हैं ये सिर्फ 'रंगभेद' कि पैदाइश है और कुछ नहीं, पूर्णविराम !!