रविवार, 12 जुलाई 2009

तो समलैंगिकता के नाम पर लूट की तैयारी है

(समलैंगिकता के बहाने-II)
इनदिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिलों का मौसम चल रहा है। 'युवा' की ओर से कॉलेज में दाखिले के लिए कुछ छात्रों से जब समलैंगिकता पर राय जानने की कोशिश की गयी तो अधिकाँश तो इस मामले पर चर्चा करने से बचते रहे पर कुछ छात्रों ने बड़ा ही अजीब सा सवाल खडा कर दिया. हिन्दू कॉलेज में दाखिले के लिए आये एक छात्र ने उल्टे पूछ डाला कि वह कॉलेज में हॉस्टल चाहता है वह भी सिंगल कमरे वाला ताकि उसे कोई समलैंगिक कि श्रेणी में नहीं डाले. यह बड़ा ही अजीब किस्म का सवाल था. पर सच्चाई यही है कि इस ताजा फैसले से सिंगल सेट के कमरों की मांग एकाएक बढ़ गयी है, सिर्फ इसलिए कि दूसरे दोस्त उसे इस श्रेणी में डालकर चिढाने न लगे.

यह सामाजिक संबंधों में अदालती फैसले के बाद रातों-रात आये बदलाव का परिचायक है। संबंधों को इस प्रकार परिभाषित कर दिया जाय कि एक सहपाठी दूसरे सहपाठी को शक की निगाह से देखने लगे यह आने वाले समय में खतरनाक बदलाव के संकेत हैं. परिवार के स्तर पर क्या होने वाला है इसका अभी अंदाजा लगाने में समाजशास्त्रियों को वक्त लग सकता है पर वैसे भी बिखरते परिवारों के युग में यह अधिकार एक बहुत बड़ा झटका है जिसे संभालना आसान काम नहीं होगा. वैसे भी भारतीय संयुक्त परिवार प्रगतिशील मध्यमवर्ग की प्रगति में रोड़ा बनता रहा है.

भारत में एकल परिवारों का उदय और विकास इस मध्यवर्ग के मदद से ही हुआ है। वर्ना उच्च स्तरीय या निम्न वर्गीय परिवार अभी भी संयुक्त परिवारों की थाती संभाले हुए हैं. कहने को यह मध्य वर्ग सबसे प्रगतिशील है पर सबसे स्वार्थी भी और उसके इस स्वार्थपरता व तथाकथित प्रगतिशीलता का फायदा सबसे ज्यादा बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उठा रही हैं. (यही काम पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी का भी था ब्रिटिश राज में). क्योंकि जितना ज्यादा आप अकेले होंगे उतना ही ज्यादा आपकी निर्भरता इन कम्पनियों, इनकी सेवाओं और इनके उत्पादों पर होगी. तब आप अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा इन्हें देंगे जो कि आप अब तक बैंकों में बचत करते रहें हैं. परिवार में रहते हुए यह खुली लूट संभव नहीं है. इसलिए अधिक आमदनी के लिए इन परिवारों को तोड़ना बेहद जरूरी है क्योंकि एकल परिवार भी अब संयुक्त परिवारों की तरह (बदलते समय और बुजुर्गों की सूझ-बूझ की वजह से) ही मजबूत हो चुके हैं. अगर इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों व उनकी सेवाओं का आप हिसाब लगाएं तो आपको खुद समझ में आ जाएगा की आपके वेतन का कितना बड़ा हिस्सा इनको नियमित रूप से चला जाता है. और, यही कंपनियाँ इन गे परेड के लिए पैसे देती है, सेमीनार करवाती हैं और इनका मीडिया में भरपूर प्रसार हो सके इसकी भी व्यवस्था करती है.इन स्थितियों में परिवार और अन्ततः समाज को बचाए रखने की जिम्मेदारी किसकी बनती है इसका निर्णय मैं आप पाठकों पर छोड़ता हूँ.

जहां तक मनोविज्ञान की बात है तो मैंने समाजशास्त्र भी पढ़ा है और मनोविज्ञान का भी विद्यार्थी रहा हूँ। इस नाते मुझे पता है कि हर मानवीय क्रिया की एक न्यायसंगत और तार्किक व्याख्या भी होती है. यहाँ तक की बलात्कार, हत्या और दंगे जैसे कृत्यों की भी. अगर ये भी ज्यादा संख्या में होने लगे और कानूनी व्यवस्था इसे संभालने में सफल न हो पाए तो कानून को इसे सिर्फ इसलिए मान्यता दे देना चाहिए कि अब इसे ज्यादा संख्या में लोग करने लगे हैं? कानूनविदों को इस पर विचार करना चाहिए.

जहाँ तक समलैंगिकों की बात है तो इनमें अधिकाँश वे लोग हैं जो यौनातिरेकता से उब चुके हैं और यौन आनंद के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार खड़े हैं। और, ऐसे लोगों में अधिसंख्य ऐसे हैं जिनके पास प्राकृतिक यौन सुख के एक नहीं अनेक साधन उपलब्ध हैं. जो लोग कामसूत्र और अजंता, खजुराहो का उदाहरण देते हैं वे शायद यह भूल जाते हैं कि इनमें समलैंगिकों का कोई स्थान नहीं है. क्षेपक या अपवाद की बात अलग है. और, इन सबकी रचना तब हुई थी जब भारत का स्वर्णिम काल था और इनके रचना काल के बाद से ही तत्कालीन साम्राज्य के पतन की भी शुरुआत हो गयी थी.

अगर इस हिसाब से देखें तो इस मामले में हम स्वर्ण युग?? में जी रहे हैं क्योंकि अमेरिका, यूरोप जैसी महाशक्तियां अभी मंदी के दौर से गुजर रही हैं और भारत ने फिलहाल अपने को बेहतर स्थिति में बनाए रखा है. आने वाला साल और भी बेहतर होगा क्योंकि दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम होने वाले हैं. यह दिल्ली के लिए कम से कम इस दशक में सबसे बेहतर साल होगा. अब इतिहास के अनुसार चलें तो इस एक-डेढ़ साल में हम ऐसे विकसित कामुक समाज की रचना कर चुके होंगे जिसमें किसी भी प्रकार के यौन सुख पर किसी प्रकार की बाधा नहीं होगी क्योंकि हमें विदेशियों को खुश रखना है. चाहे वे गे या लेस्बियन का यौन सुख हो या फिर अन्य प्रकार के यौनाचार. इस स्वर्णिम अवसर पर सब कुछ उपलब्ध कराने की व्यवस्था इस फैसले के बहाने होने लगी है. अब इससे चाहे देश में ऐड्स फैले या फिर देश कि संस्कृति नष्ट हो. पैसा बनाने वाले इससे पैसा बनाने का रास्ता तैयार कर चुके हैं. मीडिया, कोर्ट इनके लिए औजार भर हैं वह भी इसलिए की आम जनता या हम अब भी इसपर बात करने से कतरा रहे हैं. और, हमारी कमजोरी को उन्होंने समझ लिया है बहुत ही अच्छी तरह.

7 टिप्‍पणियां:

  1. सही विश्लेषण है...... वास्तव में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की यह एक साजिश है भारतीय समाज के खिलाफ........ मीडिया की भूमिका भी इसमें संदेहास्पद है क्योंकि वह बड़े जोर शोर से समलैंगिकता के पक्ष में खडा नजर आ रहा है और सभी जानते हैं कि इन टी0 वी0 चैनलों को विज्ञापन कौन देता है.

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  2. Yah ek naya khulaasa hai. Agar aisa hai to sarkaar aur sarvochh nyayalay ko bhee iske nihitaarth samajhne chaahiye isse pahle ki der ho jaaye. Hame bhee is par khul kar bahas karne kee jaroorat hai

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  3. बहुत सार्थक पोस्ट.
    मेरे ब्लॉग पर आने का शुक्रिया.
    हया

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  4. आपने बिल्कुल सही मुद्दे पर बात की है और इस विषय को लेकर हमें भी आलोचना करनी चाहिए!आपका हर एक पोस्ट सबसे अलग होता है! लिखते रहिये!

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  5. भारतीयों को दुनिया की कोई ताक़त एक मुद्दे पर नहीं हरा सकती और वो है 'नक़ल', इस मामले हम सबसे अग्रणी हैं, दूसरी बात, गुलामी की मानसिकता हमारी धमनियों से अब तक बहार नहीं आई हैं, हम आज भी श्वेत चमड़ी को अपने से श्रेष्ठ मानते हैं और उनकी जूठन खाने को तैयार रहते हैं फिर वो समलैंगिकता जैसी घटिया विचारधारा या जीवन शैली ही क्यों न हो, हमने हमेशा उसे को अपनाया है जो उनके पास से आई है फिर चाहे वो अपनी ही चीज़ क्यों न हो, गाँधी जी जबतक यहाँ रहे किसी ने उन्हें घास नहीं डाली जब वो साउथ अफ्रीका से लौटे तभी वो गाँधी बने , योग, पता नहीं कितने हज़ार वर्षो से यहाँ है लेकिन उसको सम्मान तभी मिला जब विदेशियों ने इसको सम्मान दिया, उसी तरह से घटिया से घटिया चीज़ें पश्चिम का हाथ लगते ही सोना हो जाती हैं, ये पश्चिम के लोग अपने बाप के भी नहीं है मैं बार-बार कहती हूँ इनकी स्वार्थपरता का आप अंदाजा नहीं लगा सकते हैं, इन अंग्रेजों ने दुनिया में कहाँ नहीं राज किया है छोटे से छोटे देश मं टापुओं तक को नहीं छोडा, इसी से अंदाजा लगाना चाहिए की ये नस्ल कितनी धन लोलुप है, ये बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हमारे देश को खोखला कर के चली जायेंगी और हम बस मुँह ताकते रह जायेंगे, इनका बहिष्कार आवश्यक है..
    समलैंगिकता एक मानसिक रोग है इसका इलाज़ कराओ, ये तो वही बात हुई के किसी सिजोफ्रेनिक को लगा की वह इस देश का राष्ट्रपति है तो उसे राष्ट्रपति बना दो, इस हिसाब से तो किसी भी बात का कानून कभी भी बन सकता है, कल एक ग्रुप ऑफ़ पीपुल से सोचा हमें बगैर कपडों के रहना है तो क्या सुप्रीम कोर्ट इसकी भी इजाज़त दे देगा ...... समाज में रहने वालों को मर्यादा का पालन करना ही चाहिए और कानून उन मर्यादाओं के पालन के लिए होने चाहिए न की उनके विध्वंश के लिए.......

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  6. Ada ji aur Babli ji ,

    sabse pahle to aapko badhaai. Is baat ke liye ki aapne is mudde par apni bebaak rai to rakhi. Aur log aayenge to kaarvan badhega hi aur saari baaten saamne aayengee. Badhaai.

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