शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

जूते को रहने दो, जूता न उठाओ

 
आखिर साबित हो ही गया कि जूते की ताकत कलम से ज्यादा हो चुकी है। चाहे वह इराक हो या इंडिया हर जगह जूतों की शान में इजाफा हुआ है। वैसे दोनों ही जगह इस शान को बढ़ाने वाले कलम के सिपाही ही रहे हैं। अब इसमें कोई नई बात नही है। हमेशा से ही यही कलम के सिपाही ही किसी भी चीज का भाव बढ़ाते व गिराते रहे है। इस बार जूतों की बारी आ गई। इंटरनेशनल जूता कंपनियों को इसका अहसास पहले ही हो चुका था। इसलिए सभी बड़ी कंपनियों ने पूरे देश में जूते के शोरूम की कतारें लगानी शुरु कर दी थी। कोई भी बाजार नहीं छोड़ा जहां पर जूतों की दुकान न हो। क्या पता कोई प्रतिभावान कलम का सिपाही किस गली या बाजार से निकल आए और जूतों की किस्मत चमका दे।

ऐसे प्रतिभावान बिरले ही होते हैं और इनको ढ़ूंढना भी आसान काम नहीं है। विवेकानंद, महात्मा गांधी, नेहरू और जाने कितनों ने अपने-अपने ढंग से भारत की खोज करने की कोशिश की पर ऐसे प्रतिभावान की खोज नहीं कर पाए। यहां तक कि राहुल गांधी का युवा भारत की खोज का अभियान भी ऐसे महामानव को ढ़ूंढ पाने में असफल रहा। उन्हें शायद इस बात का इल्म भी नहीं हुआ होगा कि जिसे सारे देश की युवाशक्ति ढूंढ पाने में असमर्थ रही है वह पूरे देश के कानून व्यवस्था के ठेकेदार या कहें होम मिनिस्टर के सामने महज कुछ फीट के फासले पर यूं खड़ा मिलेगा। आखिर गोद में छोरा, शहर में ढ़िढोरा लिखने वालों ने भी कुछ सोच कर ही यह कहावत बनाई होगी।

वैसे तो एक मशहूर मीडिया कंपनी ने युद्धस्तर पर एक विदेशी ब्रांड के जूतों को अखबार की ग्राहकी के नाम पर बांटना शुरु किया वह भी मुफ्त में। शायद इस अहसास में कि मुफ्त के जूते के नाम पर कोई तो जूता शिरोमणि आ ही जाएगा मैदान में। पर प्रारब्ध का लिखा कोई टाल नहीं सकता है। जिसे जब आना हो तभी आएगा। अलबत्ता, इस चक्कर में हजारों ग्राहकों या पाठकों और जूता कंपनी को अवश्य ही लाभ मिल गया। अखबार के पाठकों में इजाफा हुआ या नहीं इसका तो पता नहीं पर ग्राहकों की संख्या जरूर बढ़ गई- जूतों की कृपा से।

पर हाल के जूता-प्रकरण से अगर हमारे पाठकों को यह लग रहा है कि पुराने व बदबूदार जूतों से निजात पाने का नुस्खा इजाद कर लिया गया है तो शायद उन्हें निराशा हो सकती है। ऐसे महान कार्य के लिए जूते का नया होना बेहद जरूरी है ताकि जूता फेंकने वालों के मन में एक बहाना तो कम से कम रहे कि नया होने के कारण जूता काट रहा था। विदेशी हो तो और अच्छा कि विदेशी जूतों का बहिष्कार किया जा रहा है। वैसे कम ही लोगों को पता होगा कि जूता प्रकरण के बाद से सभी जूता निर्माताओं के बोर्ड मीटिंगों में यह बहस का अहम् मुद्दा बन चुका है कि आखिर उस जूते में क्या खामी थी कि ता शिरोमणि को उसे अपने पांवों से निकाल कर भरी सभा में फेंकना पड़ा? वैसे बेचारे जूते को भी नहीं पता होगा कि बगैर छुए वह कितनों को चोट पहुंचा गया है।

(hindivani.ब्लागस्पाट.कॉम पर भी उपलब्ध)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें