शनिवार, 30 जून 2018

Meet the writer: Niranjan Mishra, Sahitya Akademi Awardee

स्तरीय लेखन की तुलना में लोकप्रिय लेखन हमेशा बड़ा होता है


निरंजन मिश्र एक शिक्षक और कवि हैं। उन्हें संस्कृत के लिए 2017 का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया है। यह पुरस्कार उन्हें ‘गंगापुत्रवदानम्‘ के लिए दिया गया है जो कि 23 खंडों में लिखित संस्कृत महाकाव्य है। भागलपुर में जन्मे निरंजन मिश्र, इन दिनों हरिद्वार में एक कॉलेज में शिक्षक हैं। पेश है उनकी रचना प्रक्रिया, संस्कृत व साहित्य के बारे में चंदन शर्मा से खास बातचीत :


प्र. संस्कृत कहीं पीछे छूट गया है। हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी के बाद कहीं संस्कृत का स्थान आता है, क्यों?

उ. यह सत्य है।

प्र.इसके पीछे क्या कारण हैं?

उ. कारण दरअसल कई हैं। इस क्षेत्र में रोजगार के अवसरों की कमी है। पुरस्कार प्रोत्साहन नहीं है। संस्कृत को गैर रोजगार परक बना दिया गया है। नौकरी के लिए चयन प्रक्रिया में इसे दोयम दर्जे का स्थान दे दिया गया है। अब स्कूलों में बच्चे नहीं जाते हैं। कॉलेज में संस्कृत के छात्रों की कमी है। नौकरी में संस्कृत माध्यम के छात्रों को महत्व नहीं दिया जाता है। जबकि वे भी उतनी ही मेहनत करते हैं उतना ही समय लगाते हैं, जितना कि अन्य पाठ्यक्रमों के छात्र।

प्र.सुधार कैसे संभव है?

उ. कुछ लोग प्रयास कर रहे हैं। गुरूकुल कांगड़ी ने संस्कृत में कई पाठ्यक्रम विकसित किए हैं जिनमें कि प्रबंधन, खासतौर पर भारतीय शैली में प्रबंधन भी सम्मिलित है। इसके अलावा ज्योतिष है, वैदिक कर्मकांड है। पर आज स्थिति यह है कि संस्कृत को इसके सबसे बड़े रोजगारपरक पाठ्यक्रम से धीरे-ंधीरे अलग किया जा रहा है। आयुर्वेद को अब संस्कृत से काटा जा रहा है। पहले मध्यमा की योग्यता हासिल करने भर से बीएएमएस पाठ्यक्रम में प्रवेष हो जाता था। अब यह संभव नहीं है। अब गैर संस्कृत पाठ्यक्रमों के छात्र भी इसमें आ रहे हैं। ऐसे में संस्कृत के साथ दिक्कतें तो हैं।

प्र. अब संस्कृत के अनुवाद भी अब हिंदी के बजाय अंग्रेजी में ज्यादा आ रहे हैं और उनकी गुणवत्ता भी बेहतर है?

उ. ऐसा नहीं है। संस्कृत और हिंदी में भी बेहतर काम हो रहा है। पर एक हिस्सा सामान्य लेखन का भी है। यह हमेषा से होता आया है। स्तरीय लेखन की तुलना में लोकप्रिय लेखन हमेषा बड़ा होता है।

प्र. पर क्या संस्कृत की लोकप्रियता में कमी का एक कारण यह भी रहा है कि इसमें लोकप्रिय पठन पाठन की सामग्री, पत्र-ंपत्रिकाएं नहीं हैं?

उ. अब ऐसा नहीं है। अब कई पत्रिकाएं संस्कृत में भी प्रकाषित हो रही हैं। साथ ही बाल पत्रिकाएं भी हैं। कुछ प्रोत्साहन, पुरस्कार भी प्रारंभ हो रहे हैं।

प्र. अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताइये? आपने कब से लेखन कार्य प्रारंभ किया?

उ. मैंने अपनी रचना इंटर के दौरान ही प्रारंभ कर दी थी। उस उम्र में ही मैंने 250 पेज का एक उपन्यास लिख डाला था। पर उस समय यह मेरे पिता के हाथ लग गई और उन्होंने इसकी समीक्षा करने के लिए हमारे एक पड़ोसी को दे दिया। पड़ोसी ने इस उपन्यास की ऐसी समीक्षा कर डाली की आगे आठ-ंउचयदस सालों तक कुछ भी लिखने की हिम्मत नहीं हुई। फिर पुस्तक फाड़ दी गई वो अलग। पर इस घटना से मैंने मन में यह ठान लिया था कि कुछ अलग जरूर कर के दिखाएंगे। 1998 में मेरी पहली रचना प्रकाशित हुई। पहले तो व्याख्या वगैरह लिखा करता था जो कि प्रकाषकों की बाजार की जरूरतों के हिसाब से मांग होती थी। बाद में प्रकाशकों की कमी नहीं पड़ी।

प्र. अपनी पुरस्कृत रचना गंगापुत्रावदानम् के बारे में बताइये।

उ. यह पुस्तक दरअसल स्वामी निगमानंद की बॉयोग्राफी है। यह बॉयोग्राफी उनके जीवन पर आधारित है। मैं उनके आश्रम में जाता था। प्रकृति और गंगा के प्रति उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। उनके इस परम त्याग ने मु-हजये प्रेरित किया कि मैं उनके बारे में लिखूं। हांलाकि उनकी रचना प्रक्रिया इतनी सहज नहीं थी। वैसे तो हरिद्वार में आज कई फाइव स्टार आश्रम हैं पर सही मायनों में प्राकृतिक आश्रम स्वामी जी का ही है।

प्र. पुस्तक के सांदर्य के बारे में थोड़ा बताइये ताकि पाठक इसका रसास्वाद ले सकें।

उ. कोई सौंदर्य नहीं है। बल्कि यह सपाट है। इसमें से कई सर्ग मुझे हटाने पड़े। एक सर्ग में 70 ष्लोक होते हैं। पर रचना प्रक्रिया में ऐसा होता है। स्वामी निगमानंद के गुरू ने इसमें सौंदर्य की गुंजाइष नहीं छोड़ी। उनका कहना था कि अगर काव्य सौंदर्य की चाह रखते हो तो स्वामी निगमानंद के बारे में मत लिखो।

प्र. आगे किसी रचना पर काम हो रहा है?

उ. ग्रंथिबंधनम् पर इन दिनों काम चल रहा है। जल्द ही यह पुस्तक आपके समक्ष होगी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें