शनिवार, 22 अगस्त 2009

जिन्ना: कैसे हो तटस्थ और निष्पक्ष विश्लेषण

वरिष्ट पत्रकार वेद प्रताप वैदिक पीटीआई 'भाषा' और नवभारत टाईम्स के संपादक रह चुके है और अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध पर उन्होंने पीएचडी की है. हाल में ही जसवंत सिंह के पुस्तक 'जिन्ना: इंडिया पार्टीशन, इंडीपेंदेंस' से जिन्ना पर फिर से चर्चा शुरू हो गयी है. 'युवा' को 'वैदिक' जी ने एक विश्लेषण भेजा है जिन्ना पर, जिसे हम युवा के पाठकों के लिए सधन्यवाद प्रकाशित कर रहे हैं:

क्या यह जरूरी है कि मोहम्मद अली जिन्ना को हम देवता मानें या दानव ! देव और दानव के परे क्या कोई अन्य श्रेणी नहीं है, जिसमें गांधी, जिन्ना और सावरकर जैसे लोगों को रखा जा सके? क्या अपने इतिहास के प्रति हम थोड़े निस्संग, थोड़े निष्पक्ष, थोड़े तटस्थ हो सकते हैं? यदि साठ साल बाद भी हम में यह परिपक्वता नहीं आ सकी तो क्या हम किसी दिन अपने इतिहास को दोहराने पर मजबूर नहीं हो जाएंगे? यदि साठ-सत्तर साल पहले हम जिन्ना के समकालीन हुए होते तो शायद हमारे दिल भी उसी हिकारत से भरे होते, जिससे नेहरू और पटेल के भरे हुए थे यहां हम यह नहीं भूलें कि उस समय एक गांधी नाम का आदमी भी था, जो जिन्ना को क़ायदे-आज़म (महान नेता) बोलता था, भारतमाता का 'महान बेटा' बताता था और जिसे भारत का प्रधानमंत्री पद भी देने को तैयार था क्या गांधी को पता नहीं था कि जिन्ना के सांप्रदायिक भाषणों की वजह से ही खून की नदियां बही थीं, लाखों परिवार बेघर हुए थे और भारतमाता का सीना चीरा गया था? इसके बावजूद घृणा का रेला गांधी को अपने साथ बहा न सका शायद इसीलिए वे महात्मा कहलाए हमारी पीढ़ी जिन्ना को महात्मा के चश्मे से देखे, यह जरूरी नहीं है लेकिन जरूरी यह है कि हम उन कारणों में उतरें, जिनके चलते भारतवादी जिन्ना पाकिस्तानवादी जिन्ना बन गए

पूंजाभाई झीनाभाई के बेटे मोहम्मद अली ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वे पाकिस्तान के पिता बनेंगे जिसकी मां का नाम मिठूबाई और पत्नी का नाम रतनबाई हो, जिसे न नमाज़ पढ़ना आती हो न उर्दू, जो गाय और सूअर के मांस में फर्क न करता हो, जो रोज़ दाढ़ी बनाता हो और जिसे दाढ़ीवाले मुल्लाओं में से बदबू आती हो, जो अपने आपको 'मुसलमान' कहे जाने पर भड़क उठता हो, भला ऐसा आदमी औरंगजेब के बाद मुसलमानों का सबसे बड़ा रहनुमा कैसे बन गया? जो आदमी सेंट्रल एसेम्बली में 1925 में खड़े होकर दहाड़ता हो कि ''मैं भारतीय हॅूं, पहले भी, बाद में भी और अंत में भी'', जो मुसलमानों का गोपालकृष्ण गोखले-जैसा नरम नेता बनना अपना जीवन-लक्ष्य समझता रहा हो, जो तुर्की के खलीफा को बचाने के गांधीवादी आंदोलन को पोंगा-पंथी मानता हो, जो मुसलमानों के पृथक मतदान और पृथक निर्वाचन-क्षेत्रों का विरोध करता रहा हो, जिसने मज़हब और राजनीति के घालमेल के गांधी, मौलाना मोहम्मद अली और आगा खान के प्रयत्नों को सदा रद्द किया हो, जिसने बाल गंगाधर तिलक की छोटी-सी अवमानना के लिए वॉयसराय विलिंगडन को मुंबई में नकेल पहना दी हो, 'रंगीला रसूल' के प्रकाशक महाशय राजपाल के हत्यारे अब्दुल क्रय्यूम को फांसी पर लटकाने का जिसने समर्थन किया हो, लाहौर के शहीदगंज गुरुद्वारे के विवाद में जिसने सिखों को न्याय दिलवाने में कोई क़सर न छोड़ी हो, 1933 में जिसने 'पाकिस्तान' शब्द के निर्माता चौधरी रहमत अली की मज़ाक उड़ाई हो और उनकी डिनर पार्टी का बहिष्कार किया हो, कट्टरपंथी मुल्लाओं ने जिसे 'क़ातिल-ए-आज़म' और 'क़ाफिर-ए-आज़म' का खिताब दिया हो, सरोजिनी नायडू ने जिसे 'हिंदू-मुस्लिम एकता का राजदूत' कहा हो, जिसने मुंबई के अपने मुस्लिम मतदाताओं को 1934 के चुनाव में दो-टूक शब्दों में कहा हो, ''मैं भारतीय पहले हूं, मुसलमान बाद में'', जिसे चुनाव जिताने के लिए हिंदू मित्रों ने कारों के काफिले खड़े कर दिए हों, जलियांवाला बाग और भगतसिंह के मामले में जब गांधी जैसे नेता हकला रहे थे, जिस बेरिस्टर ने एसेम्बली को हिला दिया हो, 1938 तक जिस नेता का रसोइया हिंदू हो, ड्राइवर सिख हो, आशुलिपिक मलयाली ब्राह्रमण हो, रक्षा-अधिकारी गोरखा हिंदू हो, जिसके पार्टी-अखबार का संपादक ईसाई हो और जिसका निजी डॉक्टर पारसी हो, उस मोहम्मद अली जिन्ना ने यह कहना कैसे शुरू कर दिया कि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं एक भारत में दो क़ौमें साथ-साथ नहीं रह सकतीं हिंदू और मुसलमान बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक नहीं, दो राष्ट्र हैं, दो इतिहास हैं, दो परम्पराएं हैं, दो जीवन-पद्घतियां हैं उनकी दो भाषाएं हैं, दो भूषा हैं, दो भोजन हैं, दो भवन हैं, दो कानून हैं, दो केलेंडर हैं, दो रुझान हैं, दो महत्वाकांक्षाएं हैं, दो लक्ष्य हैं उनका भला इसी में है कि वे एक-दूसरे के मातहत न रहें अलग-अलग रहें जिन्ना के अनुसार अलगाव का यह बीज भारत-भूमि में उसी दिन पड़ गया, जिस दिन कोई पहला भारतीय मुसलमान बना मज़हब के नाम पर दुनिया के सबसे पहले और शायद आखिरी राष्ट्र का निर्माण हुआ और उसका नाम है, पाकिस्तान ! इस पाकिस्तान के एकमात्र जनक थे, जिन्ना !

पाकिस्तान पाकर जिन्ना को क्या मिला? उन्होंने खुद कहा मुझे कुतरा हुआ और दीमक खाया हुआ पाकिस्तान मिला पंजाब और बंगाल बंट गए सरहदी सूबे और कश्मीर ने भी साथ नहीं दिया उनकी अपनी बेटी दीना उनके साथ नहीं गई मुंबई का शानदार घर और प्राणपि्रया रतनबाई की कब्र भारत में ही छूट गई लाखों लोग मारे गए, लाखों बेघर हुए और भारत के मुसलमान दो हिस्सों में बंट गए बांग्लादेश बनने पर तीन हिस्सों में बंट गए मौलाना मौदूदी ने ठीक ही कहा कि जिन्ना ने भारत के मुसलमानों का जितना नुकसान किया, किसी ने नहीं किया जो पाकिस्तान में रहे, वे अमेरिकी ईसाइयों की कठपुतली बन गए और जो हिंदुस्तान में रह गए, उनकी हैसियत काफि़रों के राज में ''भेड़-बकरी की-सी बन गई'' भारत अखंड न रह सका लेकिन मुसलमान तो खंड-खंड हो गए इस्लाम के नाम पर वे फौजी बूटों तले रौंदे जा रहे हैं क्या जिन्ना जैसा कुशाग्र बुद्घि का धनी इस अनहोनी को नहीं समझ पाया? वास्तव में इसके होने के पहले तक वे इसे समझ नहीं पाए अगर समझ जाते तो वे शायद पाकिस्तान के सबसे बड़े विरोधी होते वे जून 1947 तक यही समझते रहे कि पाकिस्तान तो सिर्फ एक गोटी है, जिसे वे अंग्रेज की शतरंज पर हिंदू-मुस्लिम समता के लिए आगे बढ़ा रहे हैं उन्हें क्या पता था कि कांग्रेस के कुर्सीप्रेमी कमजोर नेता इतनी जल्दी घुटने टेक देंगे वे 1920 के नागपुर अधिवेशन में गांधी से मात खा गए थे, वे 1928 की नेहरू रिपोर्ट को सुधरवाने में असफल हो गए थे, 1937 में प्रचंड विजय के बावजूद मुस्लिम लीग को वे उ.प्र. मंत्र्िामंडल में शामिल नहीं करवा पाए थे, 1946 की अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीगी मंत्र्िायों की महत्वहीनता ने उन्हें आहत किया था उन पर सौ सुनारों की चोटें पड़ती रहीं आखिरकार उन्होंने एक लुहार की जमा दी उन्हें पाकिस्तान मिल गया जिद पूरी हो गई जिद पूरी हुई, गुस्सा ठंडा हुआ, होश आया तो पता चला कि 'मेरे जीवन की यह सबसे बड़ी भूल थी' वे शिखर-पुरुष बनने के लिए ही पैदा हुए थे कांग्रेस के न बन सके तो मुस्लिम लीग के बन गए क़ायदे-आज़म शिखर पर पहुंच गए और जिन्ना तलहटी में छूट गए इसी जिन्ना की खोज में वे आाखरी दम तक तड़फते रहे सिर्फ 13 माह वे पाकिस्तान के पिता रहे और पूरे 71 साल भारत मां के बेटे रहे वे 40 साल भारत के लिए लड़े और सिर्फ 7 साल पाकिस्तान के लिए लड़े शायद पाकिस्तान के लिए भी नहीं, केवल अपने अहंकार के लिए ही लड़े इसीलिए उन्हें न तो कट्टरपंथी कहा जा सकता है और न ही सेक्युलर वे तो सिर्फ मिस्टर जिन्ना थे

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जिन्ना पर आडवाणी के बयान को लेकर जब जून 2005 में विवाद उठा तो डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने जिन्ना पर जो मौलिक एवं शोधपरख लेख लिखा था. डॉ. वैदिक ऐसे पहले भारतीय हैं, जिन्हें 1983 में कराची की जिन्ना एकेडेमी ने व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया था

5 टिप्‍पणियां:

  1. किसी भी राष्ट्राध्यक्ष का विश्लेषण उस राष्ट्र और उसके इतिहास से इतर नहीं हो सकता है. वैसे हिटलर में भी कुछ न कुछ अद्भुत जरूर रहा होगा जिससे उसने इतने बड़े राष्ट्र को नेतृत्व दिया होगा (और विश्वयुद्घ भी). पर उसे इन सन्दर्भों से काट कर नहीं देख सकते हैं.

    Sonam Singh

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  2. बहुत बढ़िया और सठिक मुद्दे को लेकर आपने बड़े ही सुंदर ढंग से लिखा है! मुझे कई चीज़ों क बारे में जानकारी नहीं थी पर आपके इस पोस्ट के दौरान अच्छी जानकारी प्राप्त हुई ! बड़ा कठिन है और सोचने वाली बात भी है!

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  3. जो लोग पिछले कई दिनो से जिन्ना पर लिख रहे है उनके पास भी इतनी माइक्रो जानकारियाँ नहीं होंगी । धन्यवाद।

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  4. aamtaur pe mujhe lambe lekh padhna accha nhi lagta...

    par aapki post ka title dekh kar kaga ki aage padhna chahiye...


    ..tathyaparakh lekh.

    waise jinna ka kya sabhi purane mahapurushon
    (india ke bhi) ka un biased vishleshan to hona hi chahiye....

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