चंदन शर्मा
यह जो देश है मेरा! गणतंत्र में उसका रूपांतरण 1950 में हुआ, भले ही आजादी हमें 75 साल पहले मिल चुकी थी। कहने को तो दोनों ही राष्ट्रीय पर्व हैं पर दोनों के ही स्वरूप जुदा-जुदा हैं। "हिंदी हैं हम .." का नारा भले ही बहुत पुराना हो चुका हो पर इस पुराने नारे की जवानी अभी भी बरकरार है। इसलिए इस नारे को साकार करते हुए सर इकबाल ने ‘‘सारे जहां से अच्छा...‘‘ की कालजयी रचना कर डाली। अब यह रचना उर्दू की थी पर "हिंदी हैं हम..." मानने वालों ने उर्दू को कभी हिंदुस्तानी से जुदा तो किया नहीं। गोया उर्दू वाले हिंदी से अलग होने की राह ढ्ूढ़ते-ढ्ूढ़ते पाकिस्तान बना बैठे। अब तीन युद्ध लड़ने वाले और अनवरत छद्म युद्ध जारी रखने वाले पाकिस्तान के साथ क्या संबंध हो इसके बारे में फैसला तो हुक्मरानों पर ही छोड़ देना चाहिए। पर, अब अंग्रेजी हुकूमत तो यहां शासन करने के लिए आई थी न कि देश का उत्थान करने के लिए। ऐसे में जब हिंदी का उर्दू के साथ और हिंदी का अन्य भाषाओं या जातियों के साथ टकराव हो तो वो क्या कहते हैं कि बिल्ली के भाग्य से छींका फूटा। जिसका भरपूर इस्तेमाल ब्रिटिश हुकूमत ने भी किया और बाद में अंग्रेजीदां बाबुओं ने भी किया। पर जब ‘‘हम भारत के लोग...‘‘ की प्रस्तावना देश का संविधान बना और 26 जनवरी 1950 को भारतीय गणतंत्र की स्थापना हुई तो राजपथ पर मनाया जाने वाला पर्व सबके लिए, पूरे देश के लिए संदेश लेकर आया कि किस प्रकार से गणराज्य देश के नागरिकों और देश के तहत आने वाले राज्यों के अधिकारों की रक्षा करेगा।
इस गणतंत्र का उत्सव हर साल हम राजपथ पर मनाते आ रहे हैं धरती पर भी और आकाश में भी। कोरोना के सबसे कठिनतम समय में भी देश ने इसे मनाया। यह मानते हुए कि महामारी की चुनौती में भी गणतंत्र का यह उत्सव मनेगा और बिना किसी हील-हुज्जत के। वैसे "हिंदी हैं हम..." मानने वालों के इस देश में उनकी भी कमी नहीं है जो कि हर अवसर को अवसरवादिता में बदलने का माद्दा रखते हैं। मसलन, आप अगर पिछड़ी जाति की बात करेंगे तो अगड़ी जाति वाले आगे आ जाएेंगे और अपना फायदा उठा ले जाएंगे। अगर जाने-अनजाने में वे चुप रह गए तो दलितों की जमात खड़ी है जो फायदा उठा ले जाएगी। यही बात बहुसंख्यक व अल्पसंख्यक के मामले में और यहां तक कि राज्यों के मुद्दे पर भी लागू होता है। पर यह अवसरवादिता अगर पूरे जमात का भला कर जाए तो फिर भी कुछ बात बनती है। दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं है। "हिंदी हैं हम..." के वतन में हिंदुस्तान और इंडिया का फ़र्क इतना ज्यादा है कि इंडिया वाले सारी मलाई खा लेते हैं और बाकी सब किनारे रह जाते हैं, चाहे वे अगड़ी जाति के हों या फिर पिछड़ी जाति के या फिर अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक या बीमारू हों या गैर-बीमारू राज्य... सब पर यह समान रूप से लागू होता है। कोरोना की महामारी ने इसमें किसी धुंधलके की गुंजाइश छोड़ी ही नहीं। इस हमाम में कितनों की नाक गई इस बारे में अब सबको पता तो है ही। आंकड़ों में जाने की ज्यादा जरूरत नहीं है। वैसे लिखने वाले लिख-लिख कर बेदम हो जाएंगे और चैनलों पर 24x7 बहस जारी रहेगी, जिसे संभालते-संभालते टीवी के एंकर भी थक जाएंगे पर इस स्थिति में बदलाव आने की कोई गुंजाइश दूर-दूर तक नहीं दिखती है।
पर "हिंदी है हम..." का जज्बा सचमुच में काबिल-ए-त़ारीफ है जो कि किसी सिल्वर लाइन की तलाश में जमीन-आसमान एक किए रहता है। फिर वह चाहे बेरोजगारी हो, स्वास्थ्य सुविधाएं हों, नागरिक सेवाएं हों या फिर रोजमर्रा जरूरतों के लिए मगज़मारी। सबके लिए "हिंदी हैं हम..." में भरोसा रखने वाले हर जगह ‘बीरबल की खिचड़ी‘ ढ़ूंढ़ ही लेते हैं। इस देश में ही नहीं विदेशों से भी दूर की कौड़ी लेकर आ जाते हैं।
पर बात तो यहां गणतंत्र की हो रही थी। अब कहते हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस संविधान का निर्माण कर भारत को एक शानदार गणतंत्र बनाने की परिकल्पना की और उसके लिए पिछले सात दशकों से अनवरत जुटे हुए थे, अब उस संविधान को ही बदलने की तैयारी है। यहां बात संशोधन की नहीं है। इस पूरे संविधान को ही बदलकर नए स्वरूप को लाने की बात की जा रही है। संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद‘ पर तो भृकुटी पहले से ही तनी हुई थी पर अब तैयारी कुछ 'बड़ा' ही करने की है।
वैसे "हिंदी हैं हम..." के लिए लक्ष्यों की कोई कमी नहीं है। आर्थिक संपन्नता का लक्ष्य, एक ऐसा ही लक्ष्य है जिसके बारे में सुनना, बात करना, विचार-विमर्श करना बेहद दिलचस्प लगता है पर इस संपन्नता को हासिल कर पाना लोहे के चने चबाने जैसा काम है जिसे अंजाम तक पहुंचाने के लिए कड़ी मेहनत के साथ-साथ एक बेहतर धैर्यपूर्ण माहौल की जरूरत है। अब जहां सदियों से बाबुओं को लोगों को विपन्न बनाकर शासन करने की तकनीक सिखाई जाती रही हो वहां संपन्नता की आस करना, वह भी आम लोगों के लिए सचमुच एक दिवास्वप्न ही है। पर "हिंदी हैं हम..." के नौजवानों ने इस दिवास्वप्न को भी बहुत हद तक धरती पर उतारने के लिए मेहनत करनी शुरू कर दी है। भले ही ‘स्टार्ट अप इंडिया‘ के नाम से हो या ‘मेक इन इंडिया‘ के नाम से नौजवान इसमें भी जुटे हुए हैं ताकि "हिंदी हैं हम..." के सपने को पंख लगाए जा सकें। भले ही बैंक और थैलीशाह और नौकरशाह या सीईओ अपनी तिजोरी खोलने में और नौकरी देने में कंजूसी करते रहे हों।
अब "हिंदी हैं हम..." में करेंसी की बात और विमुद्रीकरण की बात तो पुरानी हो चुकी है। अब डिजिटल लेन-देन और क्रिप्टोकरेंसी का जमाना है। पर इससे भी कहीं आगे बढ़कर अब तो हम डिजिटल इमेजिंग के युग में भी प्रवेश कर चुके हैं। अब नई दिल्ली के इंडिया गेट पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस का होलोग्राम इमेज दरअसल मूर्तिकला के डिजिटल युग की शुरूआत है जो कि अब सार्वजनिक स्तर पर हो रहा है। यानि कि हम एक ऐसे डिजिटल युग में प्रवेश कर चुके हैं जहां बहुत कुछ आभासी होने वाला है। कोरोना की महामारी ने स्कूल और कॉलेज तक की शिक्षा को आभासी तो बना ही दिया है पर कला में इसका प्रयोग नवोन्मेषी है। पर बात यहीं तक रह जाए तो गनीमत है। नही ंतो कहीं "हिंदी हैं हम..." की दुनिया में दाना-पानी भी आभासी न हो जाए ठीक किसी मृग-मरीचिका की तरह। तब "हिंदी हैं हम..." के गणतंत्र में कुछ करना भी आभासी से ज्यादा कुछ नहीं हो पाएगा। भले ही वह कोरोना जैसी महामारी पर महाविजय ही क्यों न हो?
चंदन शर्मा