बुधवार, 5 अप्रैल 2023

चुनाव व अदालत में ट्रंप

चंदन शर्मा

एक पोर्न स्टार को अवैध भुगतान के मामले में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की गिरफ्तारी और न्यूयार्क की अदालत में पेशी ने आने वाले राष्ट्रपति चुनाव को बेहद दिलचस्प मोड़ पर ला खड़ा किया है। रिपब्लिकन पार्टी की ओर से होने वाले चुनाव में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी का दावा करने वाले ट्रंप वैसे तो 76 वर्ष के हो चुके हैं पर उनसे उम्रदराज रहे वर्तमान राष्ट्रपति बाइडेन के प्रतिद्वंदी उम्मीदवार के रूप में उनकी लोकप्रियता अभी भी बनी हुई है। गौरतलब है कि ट्रंप ने अपने उपर लगे सभी 30 से ज्यादा आरोपों से इंकार किया है और कहा है कि ये सारे आरोप उनपर राजनीतिक षड्यंत्र के रूप में लगाए गए हैं ताकि वे आने वाले समय में चुनाव नहीं लड़ पाएं। गौरतलब है कि ट्रंप ने अदालत में पेशी के बाद अपने समर्थकों को भी संबोधित किया जिसमें उन्होंने फिर से अमेरिकी गौरव के वापसी की बात की है।

 दिलचस्प तथ्य यह है कि डोनाल्ड ट्रंप के मुकाबले में उन्हीं की रिपब्लिकन पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की दावेदार निक्की हेली ने इन आरोपों के लिए मौजूदा अमेरिकी प्रशासन और सरकार की कड़ी आलोचना कर चुकी हैं और कह चुकी हैं कि ये सारे आरोप राजनीतिक विद्वेष से लगाए गए हैं। भारतीय मूल की निक्की हेली अमेरिकी राष्ट्रपति के आगामी चुनावों के लिए ट्रंप के बाद उनकी पार्टी में दूसरी सबसे लोकप्रिय दावेदार मानी जाती हैं। हांलाकि लोकप्रियता के ग्राफ में वह अभी ट्रंप से काफी पीछे है। निक्की हेली अमेरिका के लुसियाना प्रांत की गर्वनर रह चुकी हैं और साथ ही ट्रंप सरकार के दौरान संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की स्थायी प्रतिनिधि रह चुकी हैं। ऐसे में ट्रंप के साथ निक्की हेली का इस मुश्किल समय में खड़ा होना काफी मायने रखता है।

खासकर तब जबकि अमेरिकी चुनाव के मामले में अदालत का एक निर्णायक स्तर पर मौजूदगी का रास्ता साफ हो चुका है और यह सामान्य राजनीतिक या चुनावी हथकंडों से कहीं ज्यादा जाकर व्यक्तिगत मान-सम्मान तक पहुंच चुका हो। गौरतलब है कि इस प्रकरण से ट्रंप अमेरिका के पहले ऐसे पूर्व राष्ट्रपति बन चुके हैं जिनपर आपराधिक मुकदमे दर्ज किए गए हों। चूंकि ट्रंप स्वयं भी आगामी राष्ट्रपति चुनाव में एक दावेदार उम्मीदवार हैं, ऐसे में इन चुनावों में सारी दुनिया के साथ-साथ भारत की भी नजरें टिकी हुई हैं। वैसे भी अमेरिकी घटनाक्रम से दुनिया का शायद ही कोई देश अछूता रह पाता हो।       

बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

बजट और चुनाव


CHANDAN SHARMA

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक बार और अपना बजट पेश किया है। वित्तीय विशेषज्ञों की राय में यह एक संतुलित बजट है जिसमें कि दूरदर्शी खाका खींचा गया है। साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि इस बजट में कोई ऐसी गुंजाइश नहीं है कि इसे किसी भी तरह से चुनावी बजट कहा जाए। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बजट को पहले ही गरीबों के हित वाला और युवाओं पर केंद्रित बजट की संज्ञा दे चुके हैं और बजट की भूरि-भूरि प्रशंसा कर चुके हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी इस बजट की प्रशंसा में पीछे नहीं रहे हैं और कह चुके हैं कि इस बजट से उत्तर प्रदेश को फायदा होगा क्योंकि उत्तर प्रदेश एक युवा प्रदेश है, जहां देशभर में सबसे अधिक युवा रहते हैं। चूंकि इस बजट में 60 लाख नौकरियांे के सृजित होने का वादा किया गया है इसलिए इस बजट से सबसे ज्यादा लाभ उत्तर प्रदेश की युवाओं को ही मिलेगा। 

इस तर्क के आधार पर उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर और पंजाब भी कहीं पीछे नहीं हैं क्योंकि इन सब जगहों पर युवाओं को रोजगार की जरूरत है और इस बजट में 60 लाख नौकरियों के सृजन का वादा किया गया है और इन सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। वैसे देश में रोजगार की क्या स्थिति है इसे समझने के लिए हाल ही में रेलवे की नौकरियों को लेकर जो प्रदर्शन हुए हैं वह इसकी बानगी भर है। कहा जा रहा है कि रेलवे और एनटीपीसी की करीब 3,5 लाख की भर्तियों के लिए एक करोड़ से ज्यादा आवेदन आए थे, जिसे संभालते-संभालते भर्ती एजेंसियों के हाथ-पांव फूल गए थे। जिसका परिणाम प्रदर्शन के रूप में सामने आया। ऐसे में 60 लाख नौकरियों के सृजित होने के वादे से निश्चित रूप से चुनाव वाले राज्यों को इसका लाभ सत्ताधारी दल को मिलेगा। 

पर जहां तक उत्तर प्रदेश की बात है तो उत्तर प्रदेश में सिर्फ युवाओं को रोजगार का वादा भर नहीं मिला है। बल्कि वर्ष 2022-23 के बजट में और भी बहुत कुछ मिला है, जिसका लाभ योगी सरकार को मिलना तय ही है। मसलन उत्तर प्रदेश को इस बजट में केंद्र से करीब दो लाख करोड़ रूपये का आबंटन मिलेगा जो कि पिछली बजट की तुलना में करीब 35,000 करोड़ रूपये से ज्यादा का आबंटन है। इसके अलावा चुनाव वाले इस प्रदेश पर पूरी मेहरबानी दिखाते हुए केंद्र सरकार ने करीब 50,000 करोड़ का ब्याजमुक्त ऋण के आबंटन की भी व्यवस्था की है। 

उत्तर प्रदेश के नेताओं की मानें तो गंगा किनारे रसायनमुक्त खेती की योजना का सबसे ज्यादा फायदा अगर किसी राज्य को मिलेगा तो वह उत्तर प्रदेश ही है। इसके अलावा इस बजट में आने वाले वित्त वर्ष के दौरान 80 लाख पक्के मकान बनाने की व्यवस्था की गई है जो कि दरअसल उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि अन्य सभी चुनावी राज्यों में भी लोगों को फायदा पहुंचाएगा और इसका लाभ आगामी लोकसभा चुनावों में भी मिलेगा। 

इसी प्रकार से मास ट्रांजिट सिस्टम के तहत मेट्रो परियोजनाओं के लिए बजट का आबंटन बढ़ाकर 150 करोड़ से 19350 करोड़ रूपये कर दिया गया है जिसका लाभ सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश को मिलना तय है क्योंकि सबसे ज्यादा मेट्रो परियोजनाएं फिलहाल उत्तर प्रदेश में ही क्रियान्वित की जा रही हैं। इसके अलावा केन-बेतवा लिंक परियोजना के लिए किया जाने वाला आबंटन भी चुनावों में फायदा पहुंचाएगा। (CHANDAN SHARMA)


मंगलवार, 25 जनवरी 2022

‘‘हिंदी हैं हम..."

चंदन शर्मा

यह जो देश है मेरा! गणतंत्र में उसका रूपांतरण 1950 में हुआ, भले ही आजादी हमें 75 साल पहले मिल चुकी थी। कहने को तो दोनों ही राष्ट्रीय पर्व हैं पर दोनों के ही स्वरूप जुदा-जुदा हैं। "हिंदी हैं हम .."  का नारा भले ही बहुत पुराना हो चुका हो पर इस पुराने नारे की जवानी अभी भी बरकरार है। इसलिए इस नारे को साकार करते हुए सर इकबाल ने ‘‘सारे जहां से अच्छा...‘‘ की कालजयी रचना कर डाली। अब यह रचना उर्दू की थी पर "हिंदी हैं हम..." मानने वालों ने उर्दू को कभी हिंदुस्तानी से जुदा तो किया नहीं। गोया उर्दू वाले हिंदी से अलग होने की राह ढ्ूढ़ते-ढ्ूढ़ते पाकिस्तान बना बैठे। अब तीन युद्ध लड़ने वाले और अनवरत छद्म युद्ध जारी रखने वाले पाकिस्तान के साथ क्या संबंध हो इसके बारे में फैसला तो हुक्मरानों पर ही छोड़ देना चाहिए। पर, अब अंग्रेजी हुकूमत तो यहां शासन करने के लिए आई थी न कि देश का उत्थान करने के लिए। ऐसे में जब हिंदी का उर्दू के साथ और हिंदी का अन्य भाषाओं या जातियों के साथ टकराव हो तो वो क्या कहते हैं कि बिल्ली के भाग्य से छींका फूटा। जिसका भरपूर इस्तेमाल ब्रिटिश हुकूमत ने भी किया और बाद में अंग्रेजीदां बाबुओं ने भी किया। पर जब ‘‘हम भारत के लोग...‘‘ की प्रस्तावना देश का संविधान बना और 26 जनवरी 1950 को भारतीय गणतंत्र की स्थापना हुई तो राजपथ पर मनाया जाने वाला पर्व सबके लिए, पूरे देश के लिए संदेश लेकर आया कि किस प्रकार से गणराज्य देश के नागरिकों और देश के तहत आने वाले राज्यों के अधिकारों की रक्षा करेगा। 

इस गणतंत्र का उत्सव हर साल हम राजपथ पर मनाते आ रहे हैं धरती पर भी और आकाश में भी। कोरोना के सबसे कठिनतम समय में भी देश ने इसे मनाया। यह मानते हुए कि महामारी की चुनौती में भी गणतंत्र का यह उत्सव मनेगा और बिना किसी हील-हुज्जत के। वैसे "हिंदी हैं हम..." मानने वालों के इस देश में उनकी भी कमी नहीं है जो कि हर अवसर को अवसरवादिता में बदलने का माद्दा रखते हैं। मसलन, आप अगर पिछड़ी जाति की बात करेंगे तो अगड़ी जाति वाले आगे आ जाएेंगे और अपना फायदा उठा ले जाएंगे। अगर जाने-अनजाने में वे चुप रह गए तो दलितों की जमात खड़ी है जो फायदा उठा ले जाएगी। यही बात बहुसंख्यक व अल्पसंख्यक के मामले में और यहां तक कि राज्यों के मुद्दे पर भी लागू होता है।  पर यह अवसरवादिता अगर पूरे जमात का भला कर जाए तो फिर भी कुछ बात बनती है। दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं है। "हिंदी हैं हम..." के वतन में हिंदुस्तान और इंडिया का फ़र्क इतना ज्यादा है कि इंडिया वाले सारी मलाई खा लेते हैं और बाकी सब किनारे रह जाते हैं, चाहे वे अगड़ी जाति के हों या फिर पिछड़ी जाति के या फिर अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक या बीमारू हों या गैर-बीमारू राज्य... सब पर यह समान रूप से लागू होता है। कोरोना की महामारी ने इसमें किसी धुंधलके की गुंजाइश छोड़ी ही नहीं। इस हमाम में कितनों की नाक गई इस बारे में अब सबको पता तो है ही। आंकड़ों में जाने की ज्यादा जरूरत नहीं है। वैसे लिखने वाले लिख-लिख कर बेदम हो जाएंगे और चैनलों पर 24x7 बहस जारी रहेगी, जिसे संभालते-संभालते टीवी के एंकर भी थक जाएंगे पर इस स्थिति में बदलाव आने की कोई गुंजाइश दूर-दूर तक नहीं दिखती है। 

पर "हिंदी है हम..." का जज्बा सचमुच में काबिल-ए-त़ारीफ है जो कि किसी सिल्वर लाइन की तलाश में जमीन-आसमान एक किए रहता है। फिर वह चाहे बेरोजगारी हो, स्वास्थ्य सुविधाएं हों, नागरिक सेवाएं हों या फिर रोजमर्रा जरूरतों के लिए मगज़मारी। सबके लिए "हिंदी हैं हम..." में भरोसा रखने वाले हर जगह ‘बीरबल की खिचड़ी‘ ढ़ूंढ़ ही लेते हैं। इस देश में ही नहीं विदेशों से भी दूर की कौड़ी लेकर आ जाते हैं। 

पर बात तो यहां गणतंत्र की हो रही थी। अब कहते हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस संविधान का निर्माण कर भारत को एक शानदार गणतंत्र बनाने की परिकल्पना की और उसके लिए पिछले सात दशकों से अनवरत जुटे हुए थे, अब उस संविधान को ही बदलने की तैयारी है। यहां बात संशोधन की नहीं है। इस पूरे संविधान को ही बदलकर नए स्वरूप को लाने की बात की जा रही है। संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद‘ पर तो भृकुटी पहले से ही तनी हुई थी पर अब तैयारी कुछ 'बड़ा' ही करने की है।

वैसे "हिंदी हैं हम..." के लिए लक्ष्यों की कोई कमी नहीं है। आर्थिक संपन्नता का लक्ष्य, एक ऐसा ही लक्ष्य है जिसके बारे में सुनना, बात करना, विचार-विमर्श करना बेहद दिलचस्प लगता है पर इस संपन्नता को हासिल कर पाना लोहे के चने चबाने जैसा काम है जिसे अंजाम तक पहुंचाने के लिए कड़ी मेहनत के साथ-साथ एक बेहतर धैर्यपूर्ण माहौल की जरूरत है। अब जहां सदियों से बाबुओं को लोगों को विपन्न बनाकर शासन करने की तकनीक सिखाई जाती रही हो वहां संपन्नता की आस करना, वह भी आम लोगों के लिए सचमुच एक दिवास्वप्न ही है। पर "हिंदी हैं हम..." के नौजवानों ने इस दिवास्वप्न को भी बहुत हद तक धरती पर उतारने के लिए मेहनत करनी शुरू कर दी है। भले ही ‘स्टार्ट अप इंडिया‘ के नाम से हो या ‘मेक इन इंडिया‘ के नाम से नौजवान इसमें भी जुटे हुए हैं ताकि "हिंदी हैं हम..." के सपने को पंख लगाए जा सकें। भले ही बैंक और थैलीशाह और नौकरशाह या सीईओ अपनी तिजोरी खोलने में और नौकरी देने में कंजूसी करते रहे हों।

अब "हिंदी हैं हम..." में करेंसी की बात और विमुद्रीकरण की बात तो पुरानी हो चुकी है। अब डिजिटल लेन-देन और क्रिप्टोकरेंसी का जमाना है। पर इससे भी कहीं आगे बढ़कर अब तो हम डिजिटल इमेजिंग के युग में भी प्रवेश कर चुके हैं। अब नई दिल्ली के इंडिया गेट पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस का होलोग्राम इमेज दरअसल मूर्तिकला के डिजिटल युग की शुरूआत है जो कि अब सार्वजनिक स्तर पर हो रहा है। यानि कि हम एक ऐसे डिजिटल युग में प्रवेश कर चुके हैं जहां बहुत कुछ आभासी होने वाला है। कोरोना की महामारी ने स्कूल और कॉलेज तक की शिक्षा को आभासी तो बना ही दिया है पर कला में इसका प्रयोग नवोन्मेषी है। पर बात यहीं तक रह जाए तो गनीमत है। नही ंतो कहीं "हिंदी हैं हम..." की दुनिया में दाना-पानी भी आभासी न हो जाए ठीक किसी मृग-मरीचिका की तरह। तब "हिंदी हैं हम..." के गणतंत्र में कुछ करना भी आभासी से ज्यादा कुछ नहीं हो पाएगा। भले ही वह कोरोना जैसी महामारी पर महाविजय ही क्यों न हो?

चंदन शर्मा 

शनिवार, 10 जुलाई 2021

मोदी 2.0 की सरकार

 

Chandan Sharma

पिछले दिनों मोदी सरकार में हुए फेरबदल पर वैसे तो काफी कुछ लिखा और कहा जा चुका है - जातीय समीकरण से लेकर क्षेत्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति और कोविड के दूसरे दौर से बने हालात से निकलने की मोदी सरकार की जद्दोजहद। पर इस जद्दोजहद के लिए मोदी को एक ऐसे युवा और जीवंत टीम की जरूरत थी जिनसे नए दौर या कोविड की महामारी से उपजे आर्थिक, सामाजिक और अन्य चुनौतियों से जमकर सामना किया जा सके।

इसलिए किसी को इस बात से आश्चर्य नहीं हुआ कि मोदी की इस नई 2.0 वाली टीम में युवा चेहरों को तो इस तर्ज पर शामिल किया गया कि मंत्रिमंडल की टीम की उम्र तीन साल तक घटकर 61 से 58 साल हो गई। साथ ही इसमें मोदी अपने सहयोगियों को भी इसमें सम्मिलित करने में सफल रहे। खास तौर से जेडीयू, जो कि अबतक बाहर से ही एनडीए का समर्थन करता रहा था, उसे भी मनाने में मोदी सफल रहे। हालांकि बिहार के मामले में इस नई फेरबदल में राज्य को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ है क्योंकि बिहार के मंत्रियों की संख्या में कोई इजाफा नहीं हुआ है। एलजेपी के पशुपति पारस को रामविलास पासवान की जगह लाया गया, जबकि जेडीयू के आरसीपी सिंह को लाने के एवज में बिहार के कानून आई टी मंत्री रविशंकर प्रसाद को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी। दिलचस्प यह है कि यह स्थिति तब रही, जबकि मंत्रिपरिषद् में 36 नए चेहरों को स्थान दिया गया।

दिल्ली की स्थिति भी कोई भिन्न नहीं है। दिल्ली में भी मीनाक्षी लेखी को मंत्रिपरिषद् में शामिल करने के लिए हर्षवर्धन को अपना पद छोड़ना पड़ा। कहने को तो कहा जा रहा है कि कोविड की चुनौतियों के निपटने में विफलता का ठीकरा उनके सिर पर फोड़ा गया है पर यह भी सही है कि अगर हर्षवर्धन की योग्यता और अनुभव और काम में कमी रही होती तो भारत में कोविड से होने वाली मौतों की संख्या मौजूदा संख्या से कई गुनी होती।

बहरहाल, इस समय यह जिम्मेदारी युवा चेहरे मनसुख मोडवाडिया को दी गई है और तीसरे दौर की चुनौती से निबटने के लिए वे कुछ आपातकालीन घोषणाएं भी करवाने में सफल रहे हैं।

हांलांकि, जैसा कि पहले भी कहा जाता रहा है कि यह फेरबदल आने वाले चुनावों को लेकर ज्यादा है। ऐसे में उत्तर प्रदेश से सात मंत्रियों को लिए जाने की बात को लेकर कोई ज्यादा आश्चर्यजनक नहीं है। अनुप्रिया पटेल का सहयोगी दल की ओर से शामिल होना भी साफ करता है कि आने वाले चुनाव मंे उनके दल की भूमिका महत्वपूर्ण रहेगी।

दूसरी ओर, उड़ीसा को भी कई महत्वपूर्ण विभाग सौंपे गए हैं। अश्विनी वैष्णव को पहली ही बार में तीन महत्वपूर्ण मंत्रालयों को सौंपा जाना इस मामले में उड़ीसा के महत्व को उजागर करता है। दूसरी ओर धमेंद्र प्रधान को शिक्षा और कौशल विकास में लाया जाना कहीं कहीं यह दर्शाता है कि मोदी सरकार कहीं कहीं पेट्रोलियम मंत्रालय में उनकी दक्षता का इस्तेमाल शिक्षा के क्षेत्र में भी करना चाह रही है।

हालांकि मोदी सरकार ने ज्योर्तिआदित्य सिंधिया को केंद्रीय विमानन मंत्रालय का कार्यभार सौंपा है पर यह मंत्रालय एयर इंडिया के भारी भरकम घाटे से निकलने के लिए पिछले काफी समय से जूझ रहा है। ऐसे में सिंधिया का प्रवेश कोई कम चुनौतीपूर्ण नहीं है।

पर इस चुनौतीपूर्ण समय में अनुराग ठाकुर को सूचना और प्रसारण मंत्रालय का जिम्मा भी सौंपा गया है। कोविड और बंगाल के चुनावों के बाद उपजे हालात पर यह काम कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। पूर्व मंत्री प्रकाश जावडेकर में किसी भी प्रकार से इस काम में मीन-मेख निकालना कठिन है। पर इस मंत्रालय की बानगी कुछ ऐसी है कि यहां के हर काम पर सबकी नजर होती है और इस मंत्रालय में मंत्रियों का आना जाना लगा होता है।

बहरहाल, मोदी सरकार में पिछले कुछ दिनों में नए-नए रेग्यूलेशन और कानूनों से जिस प्रकार का दबाव लोगों पर बना है, उससे भी निबटना भी कोई कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। हालांकि प्रेक्षकों के अनुसार ऐसी स्थिति में हालात से निबटने के लिए लोग विपक्ष की ओर देखते हैं पर वर्तमान में लोग सरकार से ही आस लगाए बैठे हैं चाहे वह नया आईटी कानून हो या किसी नए क्षेत्र में रेग्यूलेशन का। कोविड में वैसे भी लाॅकडाउन से देश की 85 फीसदी जनता को जिन दिक्कतों से गुजरना पड़ा है उसमें यह इजाफा ही कर रहा है क्योंकि यह लाइसेंस राज की ही याद दिलाता है। मोदी की 2.0 सरकार को जिन संकटों से निजात पाने की जरूरत होगी, उनमें से यह एक है। वैसे इस बार मोदी सरकार की मदद के लिए महिलाओं की बड़ी टीम भी है।


 

 

गुरुवार, 20 मई 2021

कोरोना पर मंथन

 

Chandan Sharma

भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोरोना का संक्रमण फिर से बढ़ रहा है, बल्कि कहें तो कोरोना के संक्रमण ने अर्थव्यवस्था को नख-शिख तक संक्रमित कर दिया है। कहां तो अर्थव्यवस्था में तेजी से V शेप के साथ सुधार की बात की जा रही थी, वहीं अब कोरोना की दूसरी और तीसरी लहर ने पूरे देश को ही झकझोर दिया है। प्रतिदिन कोरोना के कारण हो रही मौतों से अर्थव्यवस्था अछूती नहीं रही है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि देश में आर्थिक और लोकशाही व्यवस्था में इन दिनों काफी कुछ बदलाव आया है और राष्ट्रीय स्तर के प्रेक्षकों का मानना है कि यह बदलाव सकारात्मक से कहीं ज्यादा नकारात्मक है।

गौरतलब है कि पिछले दिनों चुनाव और अन्य लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को लेकर कुछ टिप्पणियां आई थीं। ये टिपण्णियां ये बताती हैं कि भले ही भारत की आस्था पूरी तरह से लोकतंत्र पर टिकीं हों पर हालिया बदलावों ने काफी कुछ गड्डमगड कर दिया है। मालूम हो कि प्रधानमंत्री कोरोना पर कई बैठकें की हैं, पर हालात बद से बदतर ही हुए हैं। कहने को तो इन दिनों नेताओं और नौकरशाही के बीच संबंधों में कुछ परिवर्तन तो आया ही है। अब जिला स्तर के प्रशासकों तक से सीधा संवाद किया जा रहा है। यह बताता है कि प्रशासकीय संरचना कोरोना के मामले में वह परिणाम देने में असफल रहा है जिसकी कि अपेक्षा अब तक की जाती रही है। 

वैसे यह परिवर्तन देखने में बड़ा ही सरल सा परिवर्तन दिखता है, पर इसका उपचार बेहद ही जटिल और समय श्रमसाध्य है। इस स्थिति के लिए सबसे बड़ी चिंता यह है कि यहां तक की गहन जटिलता में उलझने और उलझाने के लिए सिर्फ दलगत राजनीति ही नहीं बल्कि नौकरशाही, जिसका नाम इन दिनों सबसे कम लिया जा रहा है और कई अन्य पक्ष भी जिम्मेदार हैं, जिनपर गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है।

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