चन्दन शर्मा
राजधानी दिल्ली में कोबाल्ट-६० के प्रकरण ने देश को कई कभी न भूलने वाले कई सबक दिए हैं. खबरों को महज कुछ अखबारी कागज़ पर छपे हर्फ़ की तरह लेने वाले इसे एक चर्चित घटना की तरह कुछ दिनों तक याद रख सकते हैं और चर्चा कर सकते हैं. पर भारत के इतिहास में संभवतया पहली घटना होगी जिसमें आम लोगों का रेडियोधर्मी पदार्थ (या कचरा) के खतरे से सामना हुआ और इस छोटे से खतरे भर से नाभिकीय व रेडियोधर्मी संकट तथा विषैले कचरे की भयावहता का अहसास हुआ. साथ ही यह भी समझ में लोगों को आया कि किस प्रकार से रेडियोधर्मी पदार्थ की छोटी सी मात्रा को भी, लापरवाही से लिया जाय तो यह समाज में विनाशकारी स्थिति पैदा करने में सक्षम है.
यह घटना ऐसे समय हुई है जबकि सारी दुनिया की नजर भारत पर ही है जहां दिल्ली में कुछ महीने बाद अक्टूबर में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की पुरजोर तैयारी चल रही है. वैसे तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पिछले कुछ समय से बार-बार नाभिकीय संकट और नाभिकीय या रेडियोधर्मी पदार्थों के आतंकवादियों या गलत हाथों में पड़ने की आशंका की चर्चा अनेक मंचों पर पर कर चुके हैं. पर जिस प्रकार से देश के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित केन्द्रीय विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय की 'लापरवाही' से यह घटना दुर्घटना में बदली उसकी कल्पना तो आम आदमी शायद ही कर पाए.
कहने को तो दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति दीपक पेंटल ने इस प्रकरण में अपनी ' नैतिक जिम्मेदारी' लेते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन से माफी भी मांग ली है और साथ ही एक तीन सदस्यीय विशेषज्ञ समिति भी गठित कर दी है पर इस 'माफी' में भी पेंच है. यह माफी किसी दिल से मानवीय भावनाओं के तहत नहीं निकली है बल्कि यह माफी २९ मई को तब माँगी गयी है जब २८ मई को परमाणु उर्जा नियामक आयोग (ए इ आर बी) ने दिल्ली विश्विद्यालय प्रशासन को कोबाल्ट-60 के गामा विकिरण उपकरण के निपटान में सुरक्षा नियमों का उल्लंघन करने को दोषी मानते हुए इसे कारण बताओ नोटिस जारी किया और साथ ही साथ ही रेडियोधर्मी पदार्थ के प्रयोग पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने को कहा. इस निपटान में गामा विकिरण वाला यह इरेडियेटर स्थानीय कबाड़ी वाले के पास पहुँच गया और इसके रेडियोधर्मी विकिरण से एक की मौत हो चुकी है और छः लोगों का उपचार (अगर इसका कोई सही में इलाज है तो) हो रहा है. जिन्हें परमाणु सुरक्षा नियमों की जानकारी है वे जानते हैं कि इसके उल्लंघन पर लिए कड़े आर्थिक व अन्य दंड का प्रावधान है और इससे बचना आसान दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए नहीं होगा.
सवाल इतना भर नहीं है की भूलवश ऐसा हो गया या फिर दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस भूल को मानते हुए पीड़ितों के लिए मुआवजे की घोषणा कर चुके हैं या कुलपति अपनी 'नैतिक जिम्मेदारी' ले चुके हैं और यह कैसे कबाड़ तक पहुंचा इसके लिए विशेषग्य समिति गठित कर चुके हैं.
पर सवाल इन सब छोटे-छोटे मुद्दों से कहीं गंभीर हैं और गंभीर पड़ताल की मांग करते हैं.
सबसे पहले तो यह बात समझना जरूरी है कि नाभिकीय या रेडियोधर्मी सुरक्षा का मामला दुनिया में सर्वोपरि सुरक्षा मामलों में आता है. चीन में भी २००८ में हुए बीजिंग ओलम्पिक के दौरान 'डर्टी बम' का भय फैला कर बीजिंग में रेडियोधर्मी सुरक्षा की जिम्मेदारी, जिनमें लोगों को प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी से लेकर रेडियोधर्मी पदार्थ खोजने की जिम्मेदारी व इससे जुड़े अन्य पक्षों का ठेका अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी अंतर्राष्ट्रीय परमाणु उर्जा ऑथोरिटी (आई ए ई ए) के हवाले कर दी गयी थी. भारत में राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान ऐसा ही ठेका देने का दबाव सम्बंधित एजेंसी को देने के लिए बनाया पिछले काफी समय से बनाया जा रहा है. कई एन जी ओ और पूर्व वैज्ञानिक भी इस काम में जुटे हुए हैं. मीडिया इसमें जाने-या अनजाने में उत्प्रेरक का काम कर रहा है.
दिलचस्प तथ्य यह है कि जहाँ कोबाल्ट-६० व ब्लू लेडी (रेडियोधर्मी पदार्थ से लदा फ्रांसीसी जहाज जो भारतीय तट पर पहुँच गया था) जैसे प्रकरणों से भारत की परमाणु उर्जा नियामक एजेंसी (ए ई आर बी) , जिसे नाभिकीय या रेडियोधर्मी सुरक्षा के मामले में विशेषज्ञता हासिल है, को नकारा और अक्षम साबित करने की कोशिश की जा वहीं यह भी सफलता पूर्वक दर्शाने की कोशिश हो रही है कि किस प्रकार से दिल्ली विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएं भी रेडियोधर्मी पदार्थों को संभालने में सक्षम नहीं है. आम आदमी में इससे जो रेडियोधर्मी पदार्थ के कचरे और नाभिकीय संकट के बारे में जो भय और आशंका व्याप्त हो रही है वह इसके अतिरिक्त है.
सवाल इतना भर नहीं है कि किसी की भूलवश ऐसा हो गया है! बल्कि ऐसा क्या था कि दिल्ली विश्वविद्यालय को इस समय इसे बेचने की जल्दी थी जबकि दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल होने हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय नाभिकीय विज्ञान में एम् टेक पाठ्यक्रम इस वर्ष से शुरू करने की घोषणा कर चुका था और उसके लिए प्रवेश की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी थी.
जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि सवाल यह नहीं है कि भूलवश ऐसा हो गया. पर यह सवाल अपने आप में काफी परेशान करने वाला है कि दिल्ली विश्वविद्यालय को गामा किरणों को उत्सर्जित करने वाले इररेडीयेटर को बेचने की आखिर क्या जल्दी थी? इस यंत्र को प्रयोग संबंधी कार्यों के लिए कनाडा से मंगाने वाले दिल्ली विश्विद्यालय के रसायन विज्ञान विभाग के पूर्व प्रोफ़ेसर बी के शर्मा इसे सुरक्षित यंत्र करार दे चुके हैं और कह चुके हैं कि इसे महज कुछ रुपयों के लिए रद्दी में नहीं बेचा जाना चाहिए था. प्रस्तावित पाठ्यक्रम के मद्देनजर इस यंत्र की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता है.
मालूम हो कि विभाग की कोई भी रद्दी या कबाड़ बगैर विश्वविद्यालय प्रशासन की अनुमति के बगैर बाहर नहीं निकल सकता है. यह मानना बेहद मुश्किल है कि कुलपति को इस रेडियोधर्मी यंत्र के महत्त्व और खतरे का अंदाजा नहीं होगा (खासकर तब जबकि वे स्वयं जेनेटिक्स के शिक्षक रह चुके हैं और रेडियो विकिरण के प्रभावों से अनजान नहीं हैं.) या रसायन विभाग इससे अनभिग्य रहा होगा. कोबाल्ट-६० के आयु की गणना में गलती का तर्क भी गले उतरता प्रतीत नहीं होता है. उसपर कुलपति का यह कहना कि उन्हें यह बताया नहीं गया था कि इसमें अभी भी रेडियोधर्मी पदार्थ मौजूद है. यह और भी गंभीर मसला है जो विश्वविद्यालय स्तर पर हो रहे भारी गड़बड़ियों की तरफ संकेत करते हैं और बताते हैं कि किस प्रकार से प्रशासन के प्रमुख को धोखे में रखकर महत्वपूर्ण सामान कबाड़ के नाम पर बाहर भेज दिए जाते हैं. ऐसे में सम्बंधित व्यक्ति या विभाग को किसी भी स्थिति में छोड़ा नहीं जाना चाहिए खासकर जब मामला रेडियोधर्मिता का हो.
वैसे फरवरी में तीन नाभिकीय जगत से जुडी देश में कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं. भारत और ब्रिटेन ने फरवरी के दूसरे सप्ताह में सिविल न्यूक्लियर समझौते पर हस्ताक्षर किये. मालूम हो ब्रिटेन का इस व्यापार से प्रतिवर्ष १.११ अरब डॉलर का नाभिकीय व इससे जुड़े सामान निर्यात करता है और इसमें उसके करीब ८०००० नागरिकों को रोजगार मिला हुआ है. इसके तीन दिन बाद ही १६ फरवरी को ब्रिटिश कंपनी ने एक मशहूर भारतीय ऑटो निर्माता कंपनी के साथ मिलकर ब्रिटिश तकनीक के सहयोग से बने एक ऐसे सीबीआरएन वाहन को भारत के गृह मंत्रालय और देश राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन ऑथोरिटी को देने की पेशकश की जो कि पांच किलोमीटर के दायरे में मौजूद रासायनिक, जैविक , रेडियोधर्मी और नाभीकीय पदार्थ की पहचान कर उसे ढूंढ निकाले. यह पेशकश खास तौर पर राष्ट्रमंडल खेलों के मद्देनजर की गयी.
हालांकि लाख कहे जाने के बावजूद देश में इस प्रकार का जैविक, रेडियोधर्मी, रासायनिक या नाभिकीय पदार्थ सार्वजनिक रूप से नहीं पाया गया जो कि खतरा उत्पन्न करे. पर अचानक ही २६ फरवरी को एक नीलामी में गामा किरणों को उत्सर्जित करने वाले कोबाल्ट-६० के इरेदियेटर को दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस लापरवाही से बेचा कि वह पश्चिमी दिल्ली के एक बड़े इलाके के लिए खतरा बन गया. फिर जो कुछ हुआ वह सबके सामने है. बेचने का निर्णय और यह समय दोनों ही किसी बड़े (चाहे वह जानबूझ कर हो या अनजाने में) सांठ गाँठ की ओर सीधा संकेत करती है. क्योंकि इस घटना से इस वाहन को व अन्य रेडियोधर्मी डिटेक्टर, जिसका भारत में निर्माण ब्रिटेन के साथ हुए समझौते का एक हिस्सा भी है, को खरीदने का भारत पर दबाव बनाने का मार्ग प्रशस्त हो गया. कहने की जरूरत नहीं है कि आई ए ई ए के लिए भी इससे चीन की तरह ही ठेका मिलने रास्ता आसान हो गया है.
नाभिकीय या रेडियोधर्मी पदार्थ (के इस अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में) में मीडिया की भूमिका भी कम दिलचस्प नहीं रही है. उसने इस भयावहता को फैलाने में न सिर्फ अहम् भूमिका निभाई बल्कि इस प्रकरण में तह में जाने की बजाय उत्प्रेरक का भी काम किया. नहीं तो २६ फरवरी के बाद पूरे एक महीने से ज्यादा समय तक रेडियोधर्मिता का मामला सामने क्यों नहीं आ पाया? यह मामला अचानक सामने तब आया जब प्रधानमंत्री अमेरिका में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ परमाणु शिखर सम्मलेन में जाने की तैयारी कर रहे थे. फिर जब ए ई आर बी को इस मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय की भूमिका का पता घटना के सामने आने के एक हफ्ते के बाद ही चल गया था तो इसे सामने आने में फिर विश्वविद्यालय प्रशासन को जब काफी पहले पता चल गया था तो इसने माफी मांगने में तीन हफ्ते से ज्यादा समय क्यों लिया?
सी बी आर एन वाहन के सन्दर्भ में एक चर्चा जरूरी है कि कुछ समय पूर्व इंटरनॅशनल इंस्टीच्यूट ऑफ़ स्ट्रेटेजिक स्टडीज, जो कि ब्रिटेन का थिंक टैंक माना जाता है, ने इस वाहन के बारे में और आई ए ई ए के साथ बीजिंग के तरह ही सुरक्षा का सहयोग राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान बनाए रखने की सिफारिश की थी.
यह सवाल ऐसे हैं जिनके तह में जाने की जरूरत है किसी पत्रकारीय धर्म के लिए नहीं बल्कि देश धर्म के लिए भी. यह समझना जरूरी है कि कहीं हमें उन तकनीकों को जबरदस्ती खरीदने के लिए बाध्य तो नहीं किया जा रहा जिसकी हमें जरूरत नहीं है या फिर डर दिखाकर या बनाकर उन एजेंसियों को काम देने के तरीके तो ढूंढें नहीं जा रहे हैं जिनके लिए हम या हमारी एजेंसियां खुद सक्षम हैं.
साथ ही देश में नाभिकीय या रेडियोधर्मी पदार्थ की सुरक्षा के बारे में नियमों को और कड़ा बनाने और उनका सख्ती से क्रियान्वयन की जरूरत है ताकि ऐसी घटना फिर कभी न हो पाए।
(संपादित अंश अमर उजाला में ४-५-२०१० को प्रकाशित)
सच में... अब न चेते तो शायद बहोत देर हो जाये...!
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